छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
भावार्थ:-मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है? (उसी प्रकार) हे रघुनाथजी! प्रेमभक्ति रूपी (निर्मल) जल के बिना अंतःकरण का मल कभी नहीं जाता॥
मित्रों, यदि जीव परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करे तो इस संसार सागर से निकल कर भगवान् के धाम में प्रवेश पा सकता है, फिर भी यहां जीव भोग भोगने में अपना पूरा जीवन बर्बाद कर देता है, इसलिये मनुष्य को यदि आत्मा रूपी मुक्ति चाहिये तो केवल भगवत् नाम सत्संग का आश्रय लेकर ही इस संसार सागर से मुक्ति पाई जा सकती है, मनुष्य शरीर समस्त शुभ फलों का मूल है, अत्यंत दुर्लभ होने पर भी भगवान की कृपा से सुलभ हो गया है।
संसार सागर से पार पाने के लिए यह एक सुदृढ़ नौका है, कलयुग में भगवान् को प्राप्त करना संभव है, यदि मनुष्य सत्य, दया, अहिंसा उचित विचार, संतों की सेवा, दूसरों की आलोचना न करना, माता-पिता की सेवा करना, पवित्र रहना ऐसे अध्यात्म लक्षणों को अपने जीवन में उतार ले, तो भगवत् प्राप्ति कोई मुश्किल नहीं है, क्योंकि 84 लाख योनियों के बाद मनुष्य को यह दुर्लभ शरीर प्राप्त होता है, इस शरीर को पाने का मुख्य उद्देश्य भगवान् की प्राप्ति ही है।
धर्म के तीन स्वरूप हैं, अहिंसा, दया और सहिष्णुता, जीव अवस्था अनुसार धर्म को अपनाता है, धर्म का अंतिम लक्ष्य जन्म मरण रूपी संसार सागर को पार करना है, क्योंकि संसार में जीव सुख की अनुभूति कम तथा दु:ख की अनुभूति अधिक करता है, शाश्वत धर्म जीव को मुक्ति प्रदान कराता है, अत: प्रत्येक जीव को धर्म के अनुसार कर्म करने से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है, सुख की एक कमजोर कड़ी यह है कि वह प्राय: दु:ख एवं पाप को जन्म देकर रहता है, दु:ख हित को जन्म देकर रहता है।
सुख अच्छा लगे तो भी उससे दूर रहना श्रेयस्कर है, दूसरी बात? प्रेम को जीवन में अपनायें, जीवन में प्रेम के प्रति लोगो के नज़रिये अलग हो सकते है, उनके साथ होने वाले अनुभवों के आधार पर हर एक व्यक्ति प्रेम की व्याख्या करता है. लेकिन उनकी ये व्याख्या कई बार तर्क और कुतर्क के धरातल में फंस कर रह जाती है।
मोह में पड़ा हुआ कोई भी व्यक्ति प्रेम के मौलिक आनंद को प्राप्त नहीं कर पाता है, वो अपनी ख़ुशी और गम दूसरो पर थोपते है, फलस्वरूप निराशा के भवरजाल में फसे रहते है, और कुछ लोग तो मौत को भी गले लगा लेते है, निराशा की हर शुरुआत आशा से ही होती है, किन्तु कोई भी निराशा यह नहीं कहती की आप स्वयं से प्रेम करना बंद कर दे, जो व्यक्ति स्वयं से प्रेम नहीं कर सकता वह दूसरो को प्रेम भी नहीं दे सकता।
सज्जनों, प्रेम का दूजा नाम ही समर्पण है, और समर्पण में व्यक्ति कुछ पाने की लालसा नहीं करता, वह केवल देना जानता है, और देने वाला कभी निराश नहीं होता, आप की ख़ुशी और गम एक अनुभव से अधिक कुछ भी नहीं है, प्रेम के उन पलो को एक बार फिर से अपने पास ले आइये, अनुभव कीजिये, आप प्रेम के करीब जा रहे है, आप प्रेम के इतना करीब है कि आप को किसी से घृणा नहीं है, आप ऊर्जामय है, आप प्रकृति के करीब है, आप अपने प्रिय को बिना किसी उम्मीद के प्रेम करते है, प्रेम से ही प्रभु की प्राप्ति संभव है, जो प्रेम की परिभाषा को समझ सकते हैं, प्रभु उनके करीब ही होते हैं।