जैसे कोई बडा़ आत्मा या कोई छोटा आत्मा नहीं होता!वैसे ही कोई अधिक ज्ञानी व कोई कम ज्ञानी भी नहीं होता!क्यों?

क्योंकि आत्मा सभीका एकरुप है,एकसमान ही है,इसलिए उसका ज्ञान भी एक ही प्रकार का होता है!हाँ भौतिक विषयों की जानकारी किसी के पास कम अधिक हो सकती है!

अन्त:करण की जानकारी किसी के पास कम अधिक हो सकती है! त्रिगुणात्मक प्रकृति व उसके गुणों अवगुणों की जानकारी किसी में अधिक, किसी में कम हो सकती है!

किन्तु आत्मज्ञान रुपी स्वानुभव, सभी का एकरुप,व एकसमान ही होता है,किन्तु एक सत्य यह भी है, के सबके अभिव्यक्त करने की भाषा शैली अर्थात सबका अपने अनुभव का अभिव्यक्तिकरण, भिन्न भिन्न प्रतीत होता है!

जिससे बडे़ बडे़ साधक ही नहीं वरन सिद्ध लोगों के साथ साथ, अनेक महाँपुरुषों के तथाकथित भक्तगण लोग भी, भ्रमित हो जाते हैं,और एक की दूसरे से व्यर्थ तुलना करने लगते हैं!

और तुलना इतनी विनाशकारी,विध्वन्शकारी और निम्नकोटि का मानसिक नशा अर्थात अमल है, के यदि यह आदत स्वयं ईश्वर में भी यह अमल हो,

तो उनकी अपरिवर्तनशील कही जाने वाली, सत् की सनातन सत्ता भी, परिवर्तनशील हो जायेगी!

तो उनकी अविनाशी कही जाने वाली, चित् की पुरातन चैतन्य सत्ता भी, विनाशशील हो जायेगी,

और उनकी अखण्डित कही जाने वाली,परमानन्द की शाश्वत सत्ता भी, खण्डित हो जायेगी!

विश्वास न हो तो आप स्वयं अपने उपर एक प्रयोग करो,या पूर्वकाल में अर्थात भूतकाल में घटित हुए, किसी घटना का कोई दृष्य स्मरण करो,जब आपका मन बुद्धी प्रसन्न था,पर अचानक किसी ने आपकी तुलना किसी से करदी,

या आपके मन ने स्वयं किसी से अपनी तुलना करली,जिसकी समानता भाग्यवश आपका मन नहीं कर पायेगा,बस आपकी शान्ति भंग हुई,अब आपका आनन्द खण्डित हुआ!

और आप मानसिक रुप से चिन्तित हो गये!आज भी आपके साथ एैसा होता है,आगे भी होगा!यदि आप तुलना करेंगे!

सो तुलना करने से अच्छा है,के विचार करो,चिन्तन मनन करो,अपने गुणों अवगुणों के विषय में,के मैं ब्रह्मस्वरुप अजर,अमर अविनाशी तत्व आत्मा भला अवगुणी कैसे हो सकता हुँ?

किस कारण मैं इस मोह माया जाल,( जो के मात्र मेरे मन की कल्पना है,विचार तरंग है,मात्र मेरा क्षँणिक व दीर्घकालिक स्वप्न है),में स्वयं को उलझा व फँसा हुआ देख पा रहा हुँ!

इस प्रक्रिया से आपकी जड़बुद्धी चेतन होगी! कैसे? एैसे के एक एक आध्यात्मिक तात्विक शब्द एक एक ज्ञानरश्मि के समान हैं,जो विवेक रुपी प्रकाश का रुप लेकर,आपके मन में प्रवेश करके आपके अन्त:करण में चेतना लायेंगे,

और आपकी बुद्धी जड़ता छोडकर चेतनता स्वीकार कर लेगी!अर्थात पूर्णत: जाग्रत हो जायेगी!

और बुद्धी में विवेक के जागते ही,बुद्धी परमात्मा के समान सबमें अपने ही आत्मस्वरुप का दर्शन एैसे करेगी,जैसे अभी आप अपनी चक्षुईन्द्रियों से, सुर्य,चन्द्र व संसार का दर्शन करते हैं!

तब वह किसी से तुलना नहीं करेगी,क्योंकि तब कोई अन्य दिखेगा ही नहीं, तो भला वह तुलना करे तो करे किससे?

जैसे परमात्मा स्वयं को ही अनंत विस्तार वाला होने पर भी,अनंत स्वरुपों वाला होने पर भी,अनादि प्रकृति में विभक्त सा होने पर भी,

अन्य देवी देवताओं व लोकपालों दिग्पालों के अज्ञानी श्रद्धालुओं व दानवों द्वारा अपनी सत्ता के अस्वीकार किये जाने पर भी, कभी किसी से अपनी तुलना नहीं करते!

क्योंकि वे अच्छी प्रकार से जानते हैं के एक मेरे अतिरिक्त अन्य कोई,है ही नहीं तो भला हम कैसे किसी के भाव को अभाव में बदल दें,और कहें के आप मेरे जिस रुप में मुझे पाना चाहते हैं,वे मेरे मायिक रुप हैं!

इसलिए भक्तों की भावना के अनुसार वे वैसा ही हो जाते हैं,जैसा भक्त चाहते हैं,किन्तु परमसत्य तो यही है प्रिय आत्मीयजनों के चर्मचक्षुओं से दिखने वाला हर रुप,

कर्णों से सुनाई देने वाला हर शब्द,नासिका से सुँघने में आ रहा, हर गँध,जिह्वा से चखने में आने वाला हर स्वाद,और चर्म से छूआ जा सकने वाला, हर आनन्दभोग वाली वस्तुएँ मिथ्या हैं,

मायिक हैं,स्वप्नवत हैं,मानसिक भ्रम है,मात्र एक विचारतरंग हैं!जो हमें क्षँणिक सुखानन्द प्रदान करके इस भ्रम में रखती हैं के यहाँ जो कुछ भी है,वह सब सत्य ही है!

पर क्या यहाँ कुछ भी सत्य है,सिवाय जीव के,सिवाय सत्यनारायण के,सिवाय स्वयं के आत्मा के,अर्थात स्वयं के अतिरिक्त बाकी जो कुछ भी है,वह मात्र मनुष्य के मन में है!

जिस मन से मुक्ति कबूतर के समान आँखें बन्द कर लेने मात्र से भी नहीं होंगी,न ही आखें खुली रखने से ही होंगी,वरन आँखें बन्द रहें या खुली रहें,

पर आपके विवेक का द्वार न कभी बन्द हो,न आपके मन की वासनात्मक पंचेन्द्री रुपी खिड़कियाँ व्यर्थ में खुली रहें,तभी मायापति के इस दुष्तर मायाजाल से बच सकोगे!!

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