रानी श्रीरत्नावती जी दासी के मुख से भगवान के सुन्दर रूप और गुणों को सुनती रहतीं, इससे भगवान के दर्शनों की अभिलाषा तीव्र हो उठी। उन भगवान का दर्शन कैसे होता है? ऐसा पूछते-पूछते रानी के नेत्र-कमल आँसुओं से भर जाते। फिर एक दिन रानी ने दासी से कहा-‘आप कुछ उपाय कीजिये, मनमोहन के दर्शन करा दीजिये।’ तभी मैं जीवित रह सकती हूँ। वे मेरे हृदय में अड़कर बैठ गये हैं, परन्तु प्रकट होकर दर्शन क्यों नहीं देते हैं। दासी ने कहा-भगवान के दर्शन पाना बहुत दूर अर्थात् कठिन है। उनके दर्शन के लिए राजा लोग राज्य सुख को छोड़कर, विरक्त होकर धूलि में लोटते हैं, फिर भी छबि समुद्र भगवान के दर्शन नहीं पाते हैं। वे तो केवल एकमात्र विशुद्ध प्रेम के वश में हैं और उसी से दर्शन देते हैं अतः सच्चे प्रेम-भाव से भगवान की सेवा करो। विविध प्रकार के रसीले मेवा-मिष्ठानों का भोग लगाओ। तब वे अवश्य ही कृपा करेंगे। दासी ने भगवद् दर्शन के जो उपाय बताये, रानी ने उन्हें मन में धारण कर लिया ।।
भाव यह है की नवधा-भक्ति में कथा-श्रवण प्रथम भक्ति है। मलिन वासनायें ही सब अनर्थों की मूल हैं, प्रभु की कथा सुनने से उनकी निवृत्ति होती है। श्रृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः । हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्।। (भा० १-२-१७)
अर्थ-श्रवण-कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। भगवान अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में स्थिर होकर उनकी दुष्ट-वासनाओं को नष्ट कर देते हैं, क्योंकि वे सन्तों के सुहृद् हैं।
भक्तों के मुख से निकले भगवत्कथामृत को जो अपने कानों के दोनों में भर-भरकर उसका पान करते हैं, उनके हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, हृदय पवित्र हो जाता है और वे भगवान के चरण-कमलों के निकट शीघ्र पहुँच जाते हैं। दासी के मुख से कथा सुनते-सुनते रानी को प्रत्यक्ष दर्शन करने की उत्कट उत्कण्ठा हुई ।
रानी ने कहा-किसी क्षण कुल और मर्यादा की ओर ध्यान जाता है तो सोचती हूँ कि उसका त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए प्रेम-पथ का अनुसरण न करके इसे भुला दूँ, तो भुला भी नहीं पाती हूँ, क्योंकि वे श्रीकृष्ण मेरे हृदय में आकर अड़ गए है । गुण और महिमा के श्रवण से वे मेरे हृदयस्थ हो गये। अब यदि चाहूँ, तो भी उन्हें निकाल नहीं सकती। कॉटा आदि कोई सीधी वस्तु गड़ जाये तो सरलता से उसे निकाला जा सकता है, पर टेढ़ी वस्तु यदि गड़ जाये तो वह दुःख देने वाली होती है, निकलती नहीं है। श्रीकृष्ण तीन जगह से टेढ़े हैं अतः हृदय में अड़ गये हैं। मैं चाहती हूँ कि मेरे नेत्रों के सामने आवें। दूसरा कोई इस दुःख और सुख को नहीं जान सकता है। तुम जान सकती हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय में भी वे गड़े हैं और अधिक से अधिक गड़ जायँ, ऐसी अभिलाषा जिस हृदय में भक्ति होगी वहीं भगवान होंगे।