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संसार मे जहां भी परमात्मा की कथा-प्रवचन और गुणगान होता है, वहां पर भगवान स्वयं सूक्ष्म रूप में उपस्थित होकर कथा श्रवण करते है। ग्रंथ व पुराण इसकी पुष्टि करते हैं।

परमात्मा की कथा और संतो का सान्निध्य तब ही प्राप्त होता है जब हमारे भाग्य उदय होते हैं और पुण्य जाग्रत होते है, भागवत् में लिखा हैं कि एक जन्म नहीं जब अनन्त जन्मों के भाग्य उदय होते है तब हमें भागवत कथा सुनने का यह सुअवसर प्राप्त होता हैं, असल में ऐसे भगवत कार्य भगवत कृपा से ही प्राप्त होते है और सुने जाते हैं, पढ़े जाते हैं, पढ़ायें जाते हैं।

परमात्मा की कृपा के लिये तीन बातों का समन्वय होना बहुत जरूरी है- इच्छा, यत्न और अनुग्रह, सर्व प्रथम तो मानव के मन में इच्छा जाग्रत हो सद्कार्य की, कि हम भागवत की कथा सुने, पढे यह भी भगवान की कृपा ही है वरना और उल्टे-सुल्टे विचार तो गोविन्द की कृपा से ही आते हैं, तो मानव के मन में ऐसी इच्छा जागना यह पहली बात।

लेकिन इच्छा को चरितार्थ करने के लिये हमें प्रयास करना पड़ेगा तो यह है दूसरी बात ‘यत्न’ यानी प्रयत्न करें और हमने प्रयत्न किया, लेकिन केवल प्रयास से ही कथा प्राप्त नहीं हो जाती है, तो तीसरी बात की आवश्यकता होती है और वह हैं ‘भगवद् अनुग्रह’ यानी परमात्मा की कृपा से ही कथा करना, सुनना, पढना सम्भव है, तो यह स्पष्ट है कि भगवान् की कृपा से ही यह कथा सुनी या पढी जा सकती हैं।

बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

बिना प्रभु कृपा के सत्संग नहीं मिलता और बिना सत्संग के मानव मन में विवेक जाग्रत नहीं होता, राम चरित मानस में आदरणीय तुलसीदासजी लिखते हैं, व्यक्ति पुरूषार्थ से सब कुछ प्राप्त कर सकता है, लेकिन सत्संग व संतो का सानिध्य पुरूषार्थ से नहीं केवल परमात्मा की कृपा से ही मिलता हैं।

तात मिले पुनिमात मिले, सुत भ्रात मिले युवती सुखदाई।
राज मिले गज बाज मिले, सब साज मिले मन वांछित पाई।।

लोक मिले विधि लोक मिले, सुरलोक मिले वैकुंठा जाई।
सुंदर और मिले सब ही सुख, संत समागम दुर्लभ भाई।।

माता-पिता मिल जायेंगे, भाई-बहन, घर-परिवार, घोडे-गाडी, राज-पाठ, दुनियां की वासनायें, आकांक्षायें सब पूरी हो जायेगी, स्वर्ग भी मिल जाएगा लेकिन सुन्दरदासजी महाराज कहते है कि संत और सत्संग बहुत दुर्लभ है, यह प्रभु कृपा से ही मिलता हैं, मेहनत से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है लेकिन सत्संग नहीं, हमारे यहाँ चार पुरूषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

आदमी प्रयास करे तो धर्म भी मिल जाएगा, अर्थ भी मिलेगा, काम और यहाँ तक कि मोक्ष भी मिल जाएगा, हमारे शास्त्रों में ऐसे कुछ तरीके बता रखे हैं जिससे आदमी अपनी इच्छा पूरी कर सकता हैं, जैसे आदमी को प्रतिष्ठा चाहिये, नाम चाहिये, मान चाहिये, सम्मान चाहिये तो गणपति भगवान की पूजा करें, अगर धन चाहिये तो लक्ष्मीजी की पूजा करें और थोड़ी तिकड़मबाजी सीख ले तो आदमी को धन भी मिल जाता है।

बहुत सारे कठिन से कठिन कार्य व्यक्ति मेहनत से कर लेता है, लोग सागर की गहराई नाप लेते हैं, लोग चन्द्रमा तक की दौड़ लगा देते हैं, अग्नि से लोग पार हो जाते है, एवरेस्ट की ऊँचाई पर लोग चढ़ जाते है, लेकिन इतनी मेहनत अगर हम सत्संग के लिये करते हैं तब भी हमें सत्संग नहीं मिलेगा, क्योंकि सत्संग प्रयास का फल नहीं हैं, सत्संग तो प्रभु कृपा के प्रसाद का फल है, सत्संग बड़े भाग्य से मिलता हैं।

बड़े भाग्य पाइ अव सत्संगा।
बिनुहिं प्रयास होई भवभंगा।।

सज्जनों, गोपी गीत श्रीमद्भागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का 31 वां अध्याय है, इसमें 19 श्लोक हैं, रास लीला के समय गोपियों को अभिमान हो जाता है, भगवान् उनका अभिमान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं, उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं, वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है।

इसमें प्रेम के अश्रु, मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है, भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल, सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है, भाई-बहनों, हम आपके साथ उन सभी 19 श्लोक की व्याख्या करेंगे, ध्यान से पढ़े, मैंने आपको पहले ही बता दिया है कि भागवतजी अथाह महासागर है, जो जितना गहरा गोता लगायेगा, उतना ही वह अधिक पायेगा।

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते।।

गोपीयाँ श्री कृष्णजी से कहती है, हे प्यारे! आपके जन्म के कारण वैकुण्ठ लोक से भी व्रज की महिमा बढ गयी है, तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है, आपकी की सेवा करने लगी है, परन्तु हे प्रियतम, देखो आपकी गोपियाँ जिन्होंने आपके चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन भटककर आपको ढूंढ़ रही हैं।

शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः।।

हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी, हम आपकी बिना मोल की दासी हैं, आप शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो, हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर, क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः।।

हे पुरुष शिरोमणि, यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाली मृत्यु अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आंधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम् भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से आपने बार-बार हम लोगों की रक्षा की है।

न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले।।

हे परम सखा, आप केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हो, समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो, ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुयें हो, भाई-बहनों, आप अपने आप को गोपी मानों और यह विरह गीत के श्लोक का उच्चारण करों, विश्वास रखो भगवान् श्री कृष्णजी की भक्ति प्राप्त करने से आपको कोई नहीं रोक सकता।

जय श्री कृष्ण!
जय श्री राधे राधे

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