भावी CJI ने SIR विवाद सुनवाई में AM सिंघवी को टोका, कहा- बिहार को ऐसे मत दिखाइए

नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को भी बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई हुई। इस दौरान शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश की गई इस दलील पर असहमति जताई कि चुनाव आयोग की दस्तावेज जांच प्रक्रिया ‘मतदाता विरोधी’ और बहिष्कारकारी कदम है। कोर्ट ने कहा कि बिहार में पहले किए गए मतदाता सूची के संक्षिप्त पुनरीक्षण में दस्तावेजों की संख्या सात थी और विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) में यह 11 है, जो दर्शाता है कि SIR मतदाताओं के अनुकूल है।
देश के भावी CJI जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने बिहार में SIT आयोजित कराने के निर्वाचन आयोग के 24 जून के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं की इस दलील के बावजूद कि आधार को स्वीकार न करना अपवादात्मक था, ऐसा प्रतीत होता है कि दस्तावेजों की बड़ी संख्या ‘वास्तव में समावेशी’ थी।
SIR मतदाता अनुकूल: जस्टिस कांत
पीठ ने कहा, ‘‘राज्य में पहले किए गए संक्षिप्त पुनरीक्षण में दस्तावेजों की संख्या सात थी और SIR में यह 11 है, जो दर्शाता है कि यह मतदाता अनुकूल है। हम आपकी दलीलों को समझते हैं कि आधार को स्वीकार न करना अपवादात्मक है, लेकिन दस्तावेजों की अधिक संख्या वास्तव में समावेशी स्वरूप की है।’’ शीर्ष अदालत ने कहा कि मतदाताओं को सूची में शामिल 11 दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना आवश्यक था।
दस्तावेजों की संख्या भले 11 लेकिन कवरेज कम
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस पर असहमति जताई और कहा कि दस्तावेजों की संख्या भले ही अधिक हो, लेकिन उनका कवरेज कम है। सिंघवी ने पासपोर्ट की उपलब्धता का उदाहरण देते हुए कहा कि बिहार में पासपोर्ट धारकों की संख्या एक से दो प्रतिशत हैं और राज्य में स्थायी निवासी प्रमाण पत्र देने का कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘अगर हम बिहार की आबादी के पास दस्तावेजों की उपलब्धता देखें, तो पता चलता है कि कवरेज बहुत कम है।’’
जस्टिस कांत ने सिंघवी को टोका, इस तरह से प्रोजेक्ट मत कीजिए
इसी बीच, जस्टिस कांत ने सिंघवी को टोकते हुए और मामले में हस्तक्षेप करते हुए कहा, “बिहार को इस तरह से प्रोजेक्ट मत कीजिए।” उन्होंने आगे कहा, “अखिल भारतीय सेवाओं के संदर्भ में, अधिकतम प्रतिनिधित्व इसी राज्य से है। सबसे ज़्यादा आईएएस, आईपीएस, आईएफएस (अधिकारी) यहीं से हैं। अगर युवा आबादी प्रेरित नहीं होगी तो ऐसा नहीं हो सकता।”
ज़्यादातर लोगों के पास ये दस्तावेज़ नहीं
इस पर सिंघवी ने कहा, “हमारे पास वहाँ से बहुत प्रतिभाशाली वैज्ञानिक आदि हैं, लेकिन यह एक वर्ग तक ही सीमित है। बिहार में ग्रामीण और बाढ़-ग्रस्त इलाके हैं। गरीबी से ग्रस्त इलाके हैं। उनके लिए 11 दस्तावेज़ों की सूची बनाने का क्या मतलब है? मुद्दा यह है कि बिहार में ज़्यादातर लोगों के पास ये दस्तावेज़ नहीं होंगे। हम वास्तविक, प्रामाणिक जाँच की बात कर रहे हैं।” पासपोर्ट का उदाहरण देते हुए, सिंघवी ने कहा कि बिहार की केवल 1-2 प्रतिशत आबादी के पास ही पासपोर्ट हैं और यह संख्या 36 लाख है। पीठ ने जवाब दिया कि 36 लाख पासपोर्ट कवरेज “अच्छा” है।
लाल बाबू फैसले का उल्लंघन
सिंघवी ने कहा, “आपने 11 दस्तावेज़ दिए हैं और इन 11 दस्तावेज़ों में से तीन बक्से बिना किसी सूचना के खाली हैं। बाकी दो संदिग्ध हैं। इसलिए 11 की यह प्रभावशाली सूची ताश के पत्तों के घर के अलावा और कुछ नहीं है। यह ओवरलैपिंग नहीं, बल्कि प्रतिस्थापन है।” वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि लोगों से यह साबित करने के लिए कहा जा रहा है कि वे नागरिक हैं या नहीं? उन्होंने कहा कि यह 1995 के लाल बाबू फैसले का उल्लंघन है। लाल बाबू फैसले ने मतदाता के अधिकारों को बरकरार रखा था और यह अनिवार्य किया था कि मतदाता सूची से किसी का नाम हटाने का कोई भी कदम पर्याप्त सबूतों के आधार पर उठाया जाना चाहिए और मतदाताओं को भी अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए।
वोटर लिस्ट में नाम जोड़ना, हटाना EC का अधिकार क्षेत्र
बता दें कि एक दिन पहले यानी 12 अगस्त को, शीर्ष अदालत ने कहा था कि मतदाता सूची में नागरिकों या गैर-नागरिकों को शामिल करना या बाहर करना निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र में है और बिहार में मतदाता सूची की SIR में आधार और मतदाता पहचान पत्र को नागरिकता के निर्णायक प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करने के आयोग के रुख का समर्थन किया था। संसद के अंदर और बाहर एसआईआर के मुद्दे पर प्रदर्शन के बीच, शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि यह विवाद ‘‘काफी हद तक विश्वास की कमी का मुद्दा’’ है, क्योंकि निर्वाचन आयोग ने दावा किया है कि बिहार में कुल 7.9 करोड़ मतदाता आबादी में से लगभग 6.5 करोड़ लोगों को अपने या माता-पिता के लिए कोई दस्तावेज दाखिल करने की आवश्यकता नहीं थी जिनके नाम 2003 की मतदाता सूची में थे।