मैया यशोदा नें ही रखा था ये नाम महादेव का.. ”चिन्ता हरण महादेव”।
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क्यों की मैया की चिन्ता इन्हीं नें दूर कर दी थी.. और इतना ही नही महादेव वहीं गोकुल में ही रहे थे.. जब जब उनका लाला रोता था तब महादेव को बुला लेती थीं मैया…
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और महादेव को देखते ही ये हँसनें लगते.. उनके साँपों से खेलनें लगते.. वैसे उस समय डर जाती मैया.. पर महादेव कहते.. ये तो शेषनाग पर शयन करनें वाला है.. ये साधारण साँप इसका क्या बिगाड़ेंगे..
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पर ये बात बेचारी मैया क्या समझे, उसके लिये तो ये लाला.. बस लाला है।
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उद्धव के मुख से ये प्रसंग सुनकर विदुर जी अत्यन्त प्रसन्न हुए.. बोले, उद्धव ! ये हरि और हर का मिलन कैसे हुआ ?
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क्या अद्भुत लीला होगी वो.. सुनाओ ना उद्धव ! मुझे सुननी है वो दिव्य लीला।
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उद्धव हँसे.. तात ! ये प्रसंग सच में अद्भुत है.. मैं भी उत्सुक हूँ आप जैसे परम भागवत को सुनाने के लिये..
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इतना कहकर उद्धव कुछ देर के लिये मौन हो गए.. जब वो लीला उद्धव के हृदय में प्रकट हुयी.. तब वे आनन्द से सुनानें लगे थे।
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कैलाश पर्वत है.. ध्यानस्थ थे महादेव तो वहाँ।
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पर एकाएक उन्होंने घबरा कर अपनें नेत्रों को खोला.. उन्हें घबराहट इसलिये हुयी थी.. कि वे जिस निराकार ब्रह्म के ध्यान में लीन थे.. वो निराकार..
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तरंगें आकार लेनें लगीं थी.. और आकार लेते ही एक सुन्दर सा बालक नीलमणी सा बालक.. जो अपनी मैया की गोद में खेल रहा था.. और किलकारियाँ मार रहा था।
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ओह ! महादेव आनन्दित हो गए थे.. तो निराकार नें आकार ले लिया है..निराकार हो गया है..
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महादेव उठे.. अपनी फैली हुयी जटाओं को सम्भाला.. और सीधे गोकुल की ओर चल दिए थे.. पार्वती जी को भी नही बताया.. बस चल दिए गोकुल की ओर।
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उत्सव तो चल ही रहा था.. आनन्द मचा हुआ था.. धूम थी नन्दोत्सव की गोकुल में.. पर यशोदा जी के महल में अब कोलाहल कुछ शान्त कर दिया गया था..
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क्यों की बालक को कहीं कष्ट न हो.. लोगों को भी उस तरफ जानें से रोक दिया गया था।
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पर महात्मा को कौन रोके ?
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महादेव चल दिए.. और महल में ही जाके रुके..
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अलख निरन्जन !
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आवाज लगाई.. मैया यशोदा अपनें लाला को खिला रही थीं.. वात्सल्य रस में डूबी थीं..
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रोहिणी, सुनन्दा इत्यादि अतिथि सत्कार में व्यस्त थीं..
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“अलख निरन्जन” की पुकार मात्र यशोदा जी नें ही सुनी..
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तो वो बाहर आगयीं..
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बाबा ! आपको क्या चाहिये ?
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हाथ जोड़कर झुकीं चरणों की ओर यशोदा जी।
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पर महादेव स्वयं ही झुक गए मैया के चरणों की ओर।
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बाबा ! क्या चाहिये ? फिर पूछा बृजरानी नें।
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लाला, लाला के दर्शन ! महादेव नें इतना ही कहा था।
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पर मैया ने इस बात को सुनकर भी अनसूना कर दिया।
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बाबा ! भिक्षा दूँ ? या कुछ और सोना चाँदी ? मैया नें विनती की।
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पर महादेव फिर बोले.. लाला का दर्शन करा दे मैया !
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इस बार विनती के स्वर थे महादेव के।
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बृजरानी कुछ देर में लिये चुप हो गयीं.. मन में आया मना कैसे करूँ !
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फिर बोलीं.. बाबा ! क्षमा करना.. तुम्हारे गले में ये सर्प है.. नाग… देखो तो.. बृजरानी नें गम्भीरता में ये बात कही थी।
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महादेव नें तुरन्त नाग को निकाला गले से.. और मैया को दिखाते हुए बोले, ये काटता नही है.. सच मैया ! ये काटता नही..
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काटता नही है तो गले में क्यों रखा है ? मैया ने पूछा।
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देखो मैया ! बात ऐसी है कि.. मैं कहीं भी ध्यान करनें बैठ जाता था ना.. तो लोग मुझे परेशान करते थे..
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मेरे गुरु नें मुझ से कहा.. ये नाग रख ले.. लोग डर जाएंगे और तेरे ध्यान भजन में विघ्न भी नही डालेंगे..
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तब से, मैं मैया ! ये नाग अपनें गले में डालता हूँ.. और हाँ.. इसके विष के दाँत मेरे गुरु नें ही तोड़ दिए थे.. इसलिये तू डर मत.. मैया ! लाला को दिखा दे।
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महादेव अब तो हाथ भी जोड़नें लगे थे।
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तू कहाँ का है ? तू कहाँ से आया है ? बृजरानी पूछ रही हैं।
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कैलाश से आया हूँ.. महादेव नें कहा..
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कैलाश ? ये कहाँ है ? बेचारी बृजरानी, ये बृज से बाहर कभी गयी नही.. तो क्या जानें कैलाश कहाँ है ?
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अच्छा ! बाबा ! तेरो नाम कहा है ?
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“शंकर”.. मैया मेरो नाम है शंकर।
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महादेव नें अपना परिचय भी दिया।
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पर मैया अब बोली.. भिक्षा ले जा.. पर ये हठ मत कर कि लाला को देखूंगा.. मैं तुझे दिखाऊंगी नही..
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अब बृजरानी नें स्पष्ट कह दिया था.. नही तो नही।
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दर्शन बगैर किये हम जायेंगें तो नही.. ऐसा कहते हुये महादेव वहीं आँगन में बैठ गए.. और त्रिशूल भी धरती में।
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अरे ! जा बाबा ! जा.. ऐसे हठ मत कर.. जा तू !
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मैया नें फिर भेजना चाहा.. पर महादेव मानें ही नहीं।
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देख बाबा ! मेरी बात सुन.. तू चाहे कुछ भी कर ले दर्शन तो मैं कराऊंगी नही.. बृजरानी नें अब रोष व्यक्त किया।
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मैं यहीं रहूंगा मैया !.. मैं यहीं तपस्या करूँगा.. कभी तो दर्शन होंगें।
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कभी नही होंगें.. मैया भी अपनें हठ में आ गयी।
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महादेव हँस रहे हैं.. उन्हें आनन्द आ रहा है.. ब्रह्म की मैया से बहस करनें में, महादेव का आनन्द देखनें जैसा था।
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यही नाली है ना ?.. लाला नहायेगा तो जल इसी से बहेगा ना..
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मैया मैं यहीं बैठ जाऊँगा.. उसके नहाये जल से मैं नहाऊंगा..
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अरे ! तू पागल है बाबा ! मैं बाँस कर दूंगी नाली में..
ये सुनकर महादेव खूब हँसें.. अरे ! मेरी भोरी मैया ! लाला कभी तो आँगन में खेलेगा.. तब देख लूँगा.. पर मैं जाऊँगा नही।
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मैं तुझे लाला दिखाऊंगी नही.. मैया नें स्पष्ट कह दिया था।
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मैं भी यहीं हूँ.. मैं भी जाऊँगा नही.. महादेव भी वहीं बैठ गए।
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“त्रिया हठ है”.. देख ले.. मैया बोली..
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हाँ तो मेरा भी “जोग हठ” है.. महादेव बोले।
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तभी भीतर कन्हैया रोनें लगे.. जोर जोर से रोनें लगे..
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मैया भागी भीतर.. पालनें से गोद में लिया लाला को.. पुचकारनें लगीं.. पर लाला चुप ही नही हो रहे.. रोते ही जा रहे हैं।
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तात विदुर जी ! हरि, हर से मिलनें के लिए मचल उठे थे आज।
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जब मैया नें देखा.. ये तो चुप हो ही नही रहा.. क्या करूँ ?
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तब मैया के मन में आया.. बाहर के बाबा ने कुछ जादू तो नही किया।
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लाला को पालनें में छोड़ वो बाहर भागी..
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बाबा ! ओ बाबा ! तुझे मन्त्र तन्त्र आते हैं ?
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महादेव हँसे.. हमनें बहुत भूत प्रेत भगाए हैं.. लाला रो रहा है ना.. मैया ! ले आओ उसे.. अभी ठीक हो जाएगा तेरा लाला।
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और हाँ. मेरी गोद में आते ही हँसनें न लगे.. तो झूठा जोगी।
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मैया भीतर गयी.. लाला रो रहा है.. परेशान मैया.. कुछ सोचा फिर बाहर आयी.. ए बाबा ! सुन तो… कुछ ले ले और यहीं से मेरे लाला को ठीक कर दे.. मैया गिड़गिड़ानें लगी।
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ना ! लेकर आ.. मेरा मन्त्र दूर तक काम नही करता.. यहीं लाना पड़ेगा लाला को.. महादेव अब प्रसन्न हैं.. कुछ आस बनी है दर्शन की।
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मैया भीतर गयी.. सोचनें लगी.. ले जाऊँ.. पर बाबा के गले में सर्प हैं.. कहीं काट लिया तो !
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फिर बाहर आयीं.. बाबा ! सोना चाँदी ले ले.. पर यहीं से मेरे लाला को ठीक कर दे मैं हाथ जोड़ती हूँ।
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मैया ! कुछ नही होगा.. तू लाला को लेकर तो आ..तुरन्त ठीक हो जाएगा तेरा लाला। थोडा भरोसा जागा मैया का।
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डरती हुयी लेकर आयी लाला को..
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और दूर बैठ गयी.. बाबा ! पढ़ मन्त्र ! मैया बोली।
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इतनी दूर ? इतनी दूर मेरा मन्त्र काम नही करेगा.. पास आ !
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महादेव पास बुलानें लगे.. डरती हुयी पास आयी मैया..।
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“अब दे मेरी गोद में”.. महादेव ख़ुशी से उछलते हुए बोले।
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ना ! तेरा साँप ! मेरे लाला को काट जाएगा..
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नही काटेगा मैया ! तू दे तो.. महादेव की जिद्द.. और लाला रोता ही जा रहा था ना..
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मैया नें डरते हुये महादेव की गोद में जैसे ही लाला को दिया..
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लाला तो हँसनें लगा.. खिलखिलानें लगा..
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मैया खुश ! मैया बहुत खुश..
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बाबा ! ओ बाबा ! तू यहीं रह जा.. मैं तेरे लिये एक कुटिया बना दूंगी.. तू यहीं रह.. और जब जब मेरा लाला रोयेगा तू आ जाना.. बाबा ! यहीं रह..
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महादेव बहुत आनन्दित हो गए.. लाला को निहारकर वो ध्यानस्थ होनें जा रहे थे.. पर रुक गए.. मैया सामनें थी।
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बाबा ! तेरा नाम आज से होगा “चिन्ताहरण”.. तेनें मेरी चिन्ता दूर की है.. ये कहते हुए मैया नें महादेव के चरण छूनें चाहे.. पर लाला की मैया से भला महादेव अपनें चरण छुवाते ?
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अरे ! मैया जब गयी महल में अपनें लाला को लेकर.. तब मैया की चरण धूलि महादेव नें अपनें अंग में लगाई थी।
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तात विदुर जी ! चिंताहरण महादेव.. महादेव वहीं रहे गोकुल में.. लाला की सारी लीलाओं का आस्वाद करते रहे।
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उद्धव इस लीला का वर्णन करते हुये भाव विभोर हो गए।