यह सोचना कि मेरे कारण दूसरों का भला हुआ-यह मूर्खता है, हमारे बिना संसार का कोई भी काम अटका नहीं रहेगा, हमारे पैदा होने से पहले भी संसार का सब काम ठीक ठीक चल रहा था, और हमारे बाद भी वैसा ही चलता रहेगा, परमात्मा उतना गरीब नहीं है कि हमारी मदद के बिना सृष्टि का काम न चला सके।
हम प्रथकतावादी न बनें, व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें, अपनी अलग से प्रतिभा चमकाने का झंझट मोल न लें, समाज के अंग बनकर रहें, समाज उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें, यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है, और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
गिरे हुओं को उठाना, पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना, भूले को राह बताना और जो अशान्त हो रहा है उसे शान्ति पहुँचा देना यह वस्तुतः ईश्वर की सेवा ही है, जब हम दुःख और दरिद्र को देखकर व्यथित होते हैं और मलीनता को स्वच्छता में बदलने के लिए बढ़ते हैं, तो समझना चाहिये की यह कृत्य ईश्वर के लिये, उसकी प्रसन्नता के लिये ही किये जा रहे हैं।
उन्नति कोई उपहार नहीं है, जो छत फाड़कर अनायास ही हमारे घर में बरस पड़े, उसके लिए मनुष्य को कठोर प्रयत्न करने पड़ते हैं और एक मार्ग अवरुद्ध हो जाय तो दूसरा सोचना पड़ता है, गुण, योग्यता और क्षमता ही सफलता का मूल्य है, जिसमें जितनी क्षमता होगी उसे उतना ही लाभ मिलेगा।
मौन प्रकृति का शाश्वत नियम है, चाँद, सूरज, तारे सब बिना कुछ कहे-सुने चल रहे हैं, संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य मौन के साथ ही पूर्ण होता है, इसी तरह मनुष्य भी जीवन में कोई महान् कार्य करना चाहे तो उसे एक लम्बे समय तक मौन का अवलम्बन लेना पड़ेगा, क्योंकि मौन से ही शक्ति का संग्रह और उद्रेक होता है।
जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो, दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो, सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो, वे जितना शीघ्र बह जायें उतना अच्छा ही है।
रोटी, साग, चावल, दाल का आहार मिला-जुला कर करते हैं, ऐसा नहीं होता कि कुछ समय दाल ही पीते रहे-कुछ समय तक शाक खाकर रहे, फिर चावल खाया करे और बहुत दिन बाद केवल रोटी पर ही निर्भर रहे, स्कूली पढ़ाई में भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास की पढ़ाई साथ चलती है, ऐसा नहीं होता कि एक वर्ष भाषा दूसरे वर्ष गणित तीसरे वर्ष भूगोल और चौथे वर्ष केवल इतिहास ही पढ़ाया जायें।
लिखने में कागज, कलम, स्याही और उँगलियों का समन्वित प्रयोग होता है, एक बार में एक ही वस्तु का प्रयोग करने से लेखन कार्य सम्भव न हो सकेगा, शरीर में पाँच तत्त्व मिलकर काम करते हैं और चेतन को पाँचों प्राण मिल कर गति देते हैं, एक तत्त्व पर या एक प्राण पर निर्भर रहा जाय तो जीवन का कोई स्वरूप ही न बन सकेगा, भोजनालय में आग, पानी, खाद्य पदार्थ एवं बर्तन उपकरणों के चारों ही साधन चाहिए, इसके बिना रसोई पक सकना कैसे सम्भव होगा?
आत्म-उत्कर्ष के लिए अपनी अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना, सुसंस्कारों के प्रति प्रबल संघर्ष करके उन्हें परास्त करना, जो सत्प्रवृत्तियाँ अभी स्वभाव में सम्मिलित नहीं हो पाई हैं, उन्हें प्रयत्न पूर्वक सीखने का या अपनाने का प्रयत्न करना और उपलब्धियों का प्रकाश दीपक की तरह सुविस्तृत क्षेत्र में वितरित करना, यह चार कार्य समन्वित रूप से सम्पन्न करते चलने की आवश्यकता पड़ती है।
इन्हीं चारों को तत्त्ववेत्ताओं ने आत्म-चिन्तन आत्म-सुधार आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के नाम से निरूपित किया है, इन चारों प्रयोजनों को दो भागो में बाँट कर दो-दो के युग्म बनते हैं, एक को मनन दूसरे को चिन्तन कहते हैं, मनन से आत्म-समीक्षा का और अवांछनीयताओं का परिशोधन आता है, चिन्तन से आत्म निर्माण और आत्म-विकास की प्रक्रिया जुड़ती है। और अंत मे आपसे यही कहना चाहूंगा,,,,,,
* पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
भावार्थ:-हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं॥