
रामायण में भी भक्ति की विशेष महिमा बतायी गयी है । उसमें ज्ञान को तो दीपक की तरह बताया है (मानस )। दीपक को जलाने में तो घी, बत्ती आदि की जरूरत होती है और हवा लगने से वह बुझ भी जाता है, पर मणि के लिये न तो घी, बत्ती आदि की जरूरत है और न वह हवासे बुझती है –
*परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा ।
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ।।
प्रबल अबिद्या तम नहिं जाई ।
हारहिं सकल सलभ समुदाई ।। (मानस)*
इतना ही नहीं, जो मुक्ति ज्ञान के द्वारा बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है, वही मुक्ति भगवान् का भजन करने से बिना इच्छा अपने आप प्राप्त हो जाति है –
*अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
संत पुरान निगम आगम बद ।।
राम भजत सोई मुकुति गोसाईं ।
अनइच्छित आवइ बरिआई ।। (मानस)*
इसलिये ज्ञानमार्गको तो बड़ा कठिन बताया गया है – ‘ज्ञान पंथ कृपान कै धारा’ (मानस ),
पर भक्ति मार्ग को बड़ा सुगम बताया है –
*भगति कि साधन कहउँ बखानी ।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ।। (मानस)*
भगवान् ने भी भक्तों के लिये अपनी प्राप्ति बड़ी सुगम बतायी है –
*अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।। ( गीता )*
‘हे पार्थ ! अनन्य चित्तवाला जो भक्त नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।
ज्ञान मार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं । कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ –
इस तरह भीतर से अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान् की कृपापर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है –
*कहहु भगति पथ कवन प्रयासा ।
योग न मख जप तप उपवासा ।।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई ।
जथा लाभ संतोष सदाई ।(मानस,)*