श्रीपार्वतीजीने कहा-
भगवन् ! आप सब तत्त्वोंके ज्ञाता हैं। आपकी कृपासे मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले, जो समस्त लोकका उद्धार करनेवाले हैं।
देवेश ! अब मैं गीताका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ, जिसका श्रवण करनेसे श्रीहरिमें भक्ति बढ़ती है।
श्रीमहादेवजी बोले-जिनका श्रीविग्रह अलसीके फूलकी भाँति श्याम- वर्णका है,
पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं,
उन भगवान् महाविष्णुकी हम उपासना करते हैं। एक समयकी बात है, मुर दैत्यके नाशक भगवान् विष्णु शेषनागके रमणीय आसनपर सुखपूर्वक विराजमान थे।
उस समय समस्त लोकोंको आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मीने आदरपूर्वक प्रश्न किया।
श्रीलक्ष्मीजीने पूछा – भगवन् ! आप सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्यके प्रति उदासीन-से होकर जो इस क्षीरसागरमें नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीभगवान् बोले –
सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ।
देवि ! यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान् वेदों का सार-तत्त्व निश्चित करते हैं।
वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप रोग-शोकसे रहित, अखण्ड आनन्दका पुञ्ज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है।
इस जगत्का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसीका अनुभव करता हूँ।
देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता-सा प्रतीत हो रहा हूँ।
लक्ष्मी ने आदर पूर्वक प्रश्न किया।
श्रीलक्ष्मीजीने पूछा- भगवन् ! आप सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्यके प्रति उदासीन-से होकर जो इस क्षीरसागरमें नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीभगवान् बोले-सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ,
अपितु तत्त्वका अनुसरण करनेवाली अन्तर्दृष्टिके द्वारा अपने ही माहेश्वर तेजका साक्षात्कार कर रहा हूँ। देवि ! यह वही तेज है,
जिसका योगी पुरुष कुशाग्र-बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान् वेदोंका सार-तत्त्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाश स्वरूप, आत्मरूप रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्दका पुञ्ज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है।
इस जगत्का जीवन उसीके अधीन है। मैं उसीका अनुभव करता हूँ। देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता-सा प्रतीत हो रहा हूँ।
श्रीलक्ष्मीजीने कहा-हृषीकेश ! आप ही योगी पुरुषोंके ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करनेयोग्य तत्त्व है,
यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत्की सृष्टि और संहार करनेवाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्वसमर्थ हैं।
इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्वसे भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये।
श्रीभगवान् बोले-प्रिये ! आत्माका स्वरूप द्वैत और अद्वैतसे पृथक्, भाव और अभावसे मुक्त तथा आदि और अन्तसे रहित है।
शुद्ध ज्ञान के प्रकाशसे उपलब्ध होनेवाला तथा परमानन्दस्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है। वही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्मा का एकत्व ही सब के द्वारा जानने योग्य है। गीताशास्त्रमें इसीका प्रतिपादन हुआ है।
अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवीने शङ्का उपस्थित करते हुए कहा-
भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और मन-वाणीकी पहुँचके बाहर है तो गीता कैसे उसका
बोध कराती है ?
मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिये। श्रीभगवान् बोले-
सुन्दरि ! सुनो, मैं गीतामें अपनी स्थितिका वर्णन करता हूँ।
क्रमशः पाँच अध्यायोंको तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायोंको दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरण कमल जानो।
इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङ्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिये। *
यह ज्ञानमात्र से ही महान् पातकों का नाश करने वाली है।
जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है,
वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है। श्रीलक्ष्मी जी ने पूछा-देव !
सुशर्मा कौन था ?
किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई ?
श्रीभगवान् बोले-प्रिये!
सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था।
पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञानसे शून्य एवं क्रूरता पूर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था।
वह न ध्यान करता था, न जप; न होम करता था, न अतिथियोंका सत्कार। वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही आसक्त रहता था।
हल जोतता और पत्ते बेचकर जीवि का चलाता था। उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था।
इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घ काल व्यतीत कर दिया।
एक दिन मूढ़ बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिये किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था।
इसी बीच में कालरूप धारी काले साँप ने उसे डस लिया।
सुशर्मा की मृत्यु हो गयी।
तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोग कर मर्त्य लोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ।
उस समय किसी पङ्गने अपने जीवन को आरामसे व्यतीत करने के लिये उसे खरीद लिया।
बैल ने अपनी पीठ पर पङ्गु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताये।
एक दिन पङ्गुने किसी ऊँचे स्थानपर बहुत देरतक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया।
इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूच्छित हो गया।
उस समय वहाँ कुतूहल वश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये।
उस जन समुदायमें से किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिये उसे अपना पुण्य दान किया। तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके लिये दान किया।
उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी। उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिये कुछ त्याग किया।
तदनन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये। वहाँ यह विचार कर कि यह वेश्या के दिये हुए पुण्य से पुण्यवान् हो गया है,
उसे छोड़ दिया गया।
फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ।
उस समय भी उसे अपने पूर्व-
जन्म की बातों का स्मरण बना रहा। बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछा-
‘तुमने कौन-सा पुण्य दान किया था ?’ वेश्या ने उत्तर दिया-
‘वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रति दिन कुछ पढ़ता है।
उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है।
उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिये दान किया था।
‘ इसके बाद उन दोनोंने तोते से पूछा। तब उस तोते ने अपने पूर्व जन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।
शुक बोला – पूर्वजन्म में मैं विद्वान् होकर भी विद्वत्ता के अभिमान से मोहित रहता था।
मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा।
फिर समया नुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा ।
उसके बाद इस लोक में आया। सद्गुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ।
पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया। एक दिन में ग्रीष्म ऋतु में तपे हुए मार्ग पर पड़ा था।
वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया।
वहीं मुझे पढ़ाया गया।
ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे।
उन्हीं से सुनकर मैं भी बारं बार पाठ करने लगा।
इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया।
तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया।
यही मेरा वृत्तान्त है,
जिसे मैंने आपलोगोंसे बता दिया। पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था,
जिससे मैंने अपने पाप को दूर किया है।
फिर उसी से इस वेश्या का भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से ये द्विज श्रेष्ठ सुशर्मा भी पाप मुक्त हुए हैं।
इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य.की प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे।
फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये। इसलिये जो गीता के प्रथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है,
उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
🙏🏻 श्री कृष्ण शरणम मम 🙏🏻