दैत्यों ने राजाओं का रूप धारण कर धरती को आक्रांत कर रखा था। उनसे त्राण पाने के लिए गौ माता का रूप धारण कर धरती माता ब्रह्मा जी की शरण में जाकर अपनी व्यथा सुनाई। तब ब्रह्मा जी ने समाधिस्थ होकर कहा –
वसुदेवगृहे साक्षात् भगवान् पुरुष: पर:।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रिय:।।
अर्थ- श्री वसुदेवजी के घर पुरुषोत्तम भगवान (श्रीकृष्ण) प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा की सेवा के लिए देवांगनाएं जन्म ग्रहण करें।
वसुदेवजी के घर में अर्थात् ‘ वसुदेवजी के यहां ‘ भगवान प्रकट होंगे। बहुत से पाठक यह सोचेंगे कि भगवान का प्रकटीकरण तो कारागार में हुआ था। अतः यह कैसे लिख दिया गया ? वसुदेव जी जहां रहते हैं , वही उनका गृह है। इस दृष्टि से उपर्युक्त प्रसंग में वसुदेव गृह का अर्थ वसुदेव जी का कारागार है।
परम सत्ता के प्रकट होने के पूर्व ही ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण को भगवान कहते हैं , तो भला महर्षि वेदव्यास जी श्रीकृष्ण को ‘ भगवान ‘ से संबोधित क्यों न करेंगे !
अब हम भगवान की वाणी में प्रवेश करते हैं।
श्री भगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।
अर्थ : – भगवान ने कहा – हे पार्थ ! अब तू मेरे सैकड़ों – हजारों अर्थात् असंख्य नाना प्रकार के तथा नाना वर्ण और आकृति वाले दिव्य रूपों को देख।
निहितार्थ – यहां ‘ नाना ‘ का अर्थ अनेक है। अलौकिक एवं आश्चर्यमय वस्तु को ‘ दिव्य ‘ कहते हैं। ‘ वर्ण ‘ शब्द लाल , पीले , नीले आदि विभिन्न रंगों का द्योतक है। ‘ आकृति ‘ शब्द अंगों की बनावट का वाचक है। जिन रूपों के वर्ण और उनके अंगों की बनावट विभिन्न प्रकार की हों तथा अनेक हों , उन्हें ‘ नानावर्णाकृतीनि ‘ से अभिहित किया गया है।
भगवान चौथे अध्याय के नवें श्लोक में ही कह चुके हैं –
” जन्म कर्म च मे दिव्यम् ” अर्थात् मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक हैं।
एकादश अध्याय में भगवान स्वयं की दिव्यता को प्रकट कर रहे हैं। दसवें अध्याय में भगवान कह चुके हैं –
” नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप ”
अर्थात् मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। भगवान ने जैसी विभूतियों के विषय में कहा है कि मेरे विभूतियों का अन्त नहीं हो सकता , ऐसे ही भगवान ने यहां अपने रूपों की अनन्तता प्रकट की है।
इस श्लोक में भगवान ने अर्जुन को ” पार्थ ” कहकर संबोधित किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत् गीता में प्रथम बार प्रथम अध्याय में ही अर्जुन को ” पार्थ ” कहकर ही संबोधित किया है – पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति।
संजय भगवत् गीता के समापन श्लोक में भी अर्जुन को पार्थ कहकर ही संबोधित करते हैं –
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
अर्जुन को पार्थ कहने का क्या कारण है ?
यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन श्री कृष्ण के पितामह थे। शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतीभोज थे। वे नि:संतान थे। शूरसेन ने कुंतीभोज को वचन दिया था कि उनकी जो पहली संतान होगी , उसे वह कुंतीभोज को सौंप देंगे। शूरसेन के प्रथम कन्या हुई , जिसका नाम ‘ पृथा ‘ रखा गया। पृथा रिश्ते में श्री कृष्ण की फुआ लगती थी। अपने वचन के अनुसार शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा को कुंतीभोज को दे दी। कुंतीभोज के यहां पृथा का नाम कुंती पड़ गया। ” पार्थ ” कहकर श्री कृष्ण अर्जुन के प्रति अपने सम्बन्ध को प्रकट कर रहे हैं कि तुम केवल मेरे भक्त एवं सखा ही नहीं हो , वरन् मेरे फुफेरे भाई भी हो।
।। योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण की जय ।।