प्रेम के कुछ लोक हैं ये यन्त्रवत् हैंऔर सर्वोच्च हैं वैकुण्ठ लोक “शान्तलोक” है वो भगवान श्री नारायण का लोक है और भगवान नारायण का रूप शान्त है इसलिये वैकुण्ठ “शान्त रस” के उपासकों का लोक है पर इस वैकुण्ठ में “दास्य रस” भी “शान्त रस” के साथ चलता हैअपनें आपको दास मनाते हैं वैकुण्ठ के पार्षद और भगवान नारायण “शान्ताकारं” हैं इसलिये शान्त रस इस लोक की विशेषता है।
इस वैकुण्ठ लोक के उत्तर दिशा की ओर “गोलोक‘ है वहाँ की उपासना “वात्सल्य रस और सख्य रस” की है कृष्ण , मुरली मनोहर के रूप में वहाँ नित्य रहते हैं यशोदा, नन्द बाबा बलभद्र मनसुख मधुमंगल श्रीदामा इत्यादि सखा अपनें शाश्वत सखा श्रीकृष्ण के साथ खेलते हैं और नवीन नवीन लीलायें वहाँ होती रहती हैं।
इस गोलोक से कुछ ऊँचाई पर एक दिव्य “कुञ्ज” है जहाँ यमुना बहती हैं सखियाँ अपनी स्वामिनी श्रीराधा रानी को नित्य लाड़ लड़ाती हैंऔर कुञ्ज लोक की स्वामिनी आल्हादिनी शक्ति हैं।
इस कुञ्ज में रहने का अधिकार मात्र सखियों को ही है यहाँ सखा या किसी भी पुरुष का वास सम्भव ही नही है।
पर हाँ इस “कुञ्ज लोक” में कृष्ण के सखाओं का आना जाना सम्भव है और गोलोक से ये सब आते जाते भी हैं जब जब कुछ विशेष लीला का सम्पादन श्याम सुन्दर को करना होता है तब।
अब इस कुञ्ज लोक के ऊपर एक “निकुञ्ज” है इस निकुञ्ज में पुरुष का प्रवेश वर्जित है पुरुष यानि अहंकार ये विशुद्ध प्रेम लोक है और विशुद्ध प्रेम में अहंकार की तनिक भी सम्भावना नही है।
इस निकुञ्ज में कृष्ण सखाओं का भी प्रवेश नहीं है यह निकुञ्ज लोक अष्ट कमल दल के समान है इसके मध्य में दिव्य सिंहासन है जिसमें श्रीश्याम सुन्दर अपनी आल्हादिनी के साथ विराजते हैं।
सखियाँ कमल के एक एक दल की तरह आठ आठ हैं यानि आठ सखियाँ हैं मुख्य वही इन युगलवर की सेवा में नित्य रहती हैं। इनकी उपासना इनकी साधना यही है कि युगलवर प्रसन्न रहें इन्हें अपने सुख की तनिक भी चिन्ता नही है। इन्हें ये सुख भी नही चाहिये कि श्याम सुन्दर हमें देखें इन्हें इतना सुख भी नही चाहिये कि श्याम सुन्दर हमें छूएं इन्हें इतना सुख भी नही चाहिए कि हमारी स्वामिनी श्रीराधा रानी कभी हमसे भी बतिया लें। नहीं… इन्हें केवल केवल यही चाहिए कि हमारे ये दोनों युगल सरकार प्रसन्न रहें खुश रहें और इनको खुश देखकर हमें अपनें आप ख़ुशी मिल जायेगी।
इतनी उच्चतम स्थिति है इन सखियों की।
अब इस “निकुञ्ज लोक” से भी ऊपर एक लोक और है“नित्य निकुञ्ज“इस “नित्य निकुञ्ज” में प्रेम से भरे ये दो दम्पति श्याम सुन्दर और उनकी आल्हादिनी ही विहार करते हैं सेवा के लिये निरन्तर सखियाँ तत्पर रहती हैं निकुञ्ज से भी ऊपर ये “नित्य निकुञ्ज” है।
इसकी विशेषता ये है कि इसमें “सुरत सुख” का दर्शन और “रति विपरीत” का दर्शन समस्त सखियों को होता है उस सुरत सुख का दर्शन कर ये माती फिरती हैं प्रेम की मत्तता इनमें छायी रहती है ये उस सुख का दर्शन करती हैं जिसका दर्शन बड़े बड़े योगियों को तो दुर्लभ है ही नारदादि जैसे भक्तों की भी वहाँ तक गति नही है वहाँ की देवता श्रीराधा रानी ही हैं और वहाँ के मुख्य पुजारी स्वयं श्याम सुन्दर है जैसे उपासक कामना करता है भावना करता है अपने इष्ट के प्रति मनोरथ करता है ऐसे ही इस नित्य निकुञ्ज में स्वयं उपासक बने श्याम सुन्दर और अपनी उपास्य श्रीराधा रानी के प्रति ऐसा दिव्य मनोरथ करते हैं।
चूड़ियाँ ऐसी हों मेरी प्रिया की.. महावर मैं लगा दूँ.. आज अपनी प्रिया के पांवों में करधनी उस कृश कटि में मैं ही पहनाऊँ.. बालों को मैं सुलझा दूँ बेणी गूँथ दूँ बेणी में फूल सजा दूँ.. उनको सुन्दर साड़ी पहना कर दूर खड़े होकर मैं उन्हें देखूँ चन्द्रिका माथे में अच्छी नहीं लग रही दूसरी चन्द्रिका ला ना ललिते.. अपनी प्यारी श्रीराधा रानी के गौर देह में चित्रावली बनाऊँ.. हाथ में सृवर्ण की पतली तूलिका ले केशर से उनके वक्ष में पुष्पों के चित्र अंकित करूँ।
जैसे साधक ध्यान करता है ऐसे ही नित्य निकुञ्ज में श्रीराधा रानी जब सो जाती हैं तब बैठ कर श्याम सुन्दर इस तरह उनका ध्यान करते हैं.. नेत्र बहने लगते हैं इस प्रेम पूर्ण ध्यान से इनके ।वो स्थिति विचित्र हो जाती है सखियाँ देखती हैं वो श्रीराधा जी से कहती हैं तब उठकर अपने हृदय से लगाते हुए श्याम सुन्दर को श्रीराधारानी अपने अधर रस से उन्हें तृप्त करने की कोशिश करती हैं।
इतना कहकर कुछ देर मौन हो गए महर्षि शाण्डिल्यकुछ बोल नही पाये वज्रनाभ की स्थिति भी विचित्र थी वो भी उसी नित्य निकुञ्ज में ही सखी भाव से भावित हो, पहुँच गए थे।
गुरुदेव ये “निभृत निकुञ्ज” क्या है?
ये प्रश्न पाँच दिन के बाद किया जब प्रेम समाधि टूटी थी दोनों की तब प्रश्न किया था वज्रनाभ ने।
वज्रनाभ
महर्षि शाण्डिल्य अभी भी देह भाव से परे ही थे।
नित्य निकुञ्ज में, सुरत सुख में युगल वर जब डूब जाते हैं…
तब सखियाँ लताओं के रन्ध्र से उस सुख का दर्शन करती हैं।
पर हे वज्रनाभ तुमने प्रश्न किया कि ये “निभृत निकुञ्ज” क्या है?
तो सुनो ये सर्वोच्च लोक है।इस “निभृत निकुञ्ज” में सखियाँ भी नही हैं और युगल वर भी युगल नहीं हैं…
महर्षि शाण्डिल्य बड़े विचित्र रहस्य का वर्णन कर रहे थे।
तो सखियाँ कहाँ चली जाती हैं? वज्रनाभ नें पहले ये प्रश्न किया।
जहाँ से प्रकटी थीं वहीँ चली जाती हैं महर्षि ने उत्तर दिया।
ये समस्त सखियाँ श्रीआल्हादिनी शक्ति से ही तो प्रकटती हैं और फिर उसी में समा जाती हैं।
फिर युगलवर ? वज्रनाभ ने फिर पूछा।
प्रेम का सिद्धान्त अटपटा है यहाँ एक और एक ग्यारह नही होते.. न एक और एक “दो” ही होते हैं
यहाँ तो एक और एक “एक” ही होते हैं ये प्रेम का अपना गणित है
महर्षि प्रेम में पगे बोल रहे हैं।
दोनों जब सुहाग की सेज पर शयन करते हैं तब श्याम रँग और गौर ऐसे मिल जाते हैं तब कुछ समझ नही आता हम अपनी नहीं कह रहे उन दोनों को भी समझ नही आता कि कौन राधा है और कौन श्याम?
वो दोनों एक हो जाते हैं एक ही हैं एक ही थे फिर एक वो एक ही है और अंत में एक ही रहते हैं।
बड़ी रहस्यमयी बातें मैनें आज तुम्हे बताईं वज्रनाभ
ये सब उसी ब्रह्म का विलास है इसे समझो और समस्त लोक उसी ब्रह्म के हैं जिसकी जैसी उपासना होती है जो इष्ट होता है उसी के लोक में वो साधक जाता है।
इसमें कोई छोटा बड़ा नही मानना चाहिए भगवान शंकर के उपासक कैलाश लोक (पृथ्वी का कैलाश नहीं) में जाते हैं तो भगवान नारायण के उपासक वैकुण्ठ भगवान राम के उपासक साकेत में जाते हैं तो कृष्ण के उपासक गोलोक में पर जो विशुद्ध प्रेम का उपासक है वो अपने अधिकार या आल्हादिनी की कृपा के द्वारा वो हे वज्रनाभ मैने जो “निकुञ्ज” “निभृत निकुञ्ज” इत्यादि बताया है वो आल्हादिनी के उपासकों का ही लोक है और ये तो सर्वमान्य है कि शक्ति सर्वोच्च है पर उस शक्ति में भी “आल्हादिनी शक्ति” तो सर्वोच्चतम है ही
ये दिव्य लीला के लोक हैं यही लोक अवतार काल के समय पृथ्वी पर उतर आते हैं जैसे साकेत अयोध्या है श्रीरंगम् वैकुण्ठ है।ऐसे ही गोलोक व्रजमण्डल है और “कुञ्ज निकुञ्ज नित्य और निभृत निकुञ्ज” ये श्रीधाम वृन्दावन हैं।
सब ब्रह्म का विलास है और यहाँ तक पहुँचना मात्र साधना से सम्भव नही है।
लीलाएं अभी भी हो ही रही हैं चल ही रहा है।
इतना कहकर महर्षि आगे कुछ बोल ही नही पाये वो उस दिव्य प्रेम लोक का वर्णन कर चुके थे कि बोलना उन्हें अब भारी पड़ रहा था।
सूर्य मिटे चन्द्र मिटे, मिटे त्रिगुण विस्तार।
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश को, मिटे न नित्य विहार।
श्री हरिशरणजी