सूरज की छाती की धड़कन श्याम नाम के साथ बन्द, लेकिन सूरज की चेतना चौकन्नी है। इस स्पर्श में सहजता क्यों नहीं है।खाल में एक जगह अस्वामाविक ढीलापन, लेकिन भीतर कुछ और। फन छाती पर रगड़ रहा है, कपड़ा चीरने की सी सरसराहट है। बीच बीच में थककर फन छाती पर रख देता है, फिर पटकता है, रगड़ता है, इतना कि फन सिकुड़ कर रस्सी बन जाता है- “अरे इसके मुख पर केचुँली ढीली होके सरक आई हैं। स्यात आँखों से नहीं दीखे है। इसी से फन रगड़े और पटके है।साहस करूँ? अंगोछे में इसकी आँखों की पपड़ी छुड़ाऊँ? दो वर्ष पहले ताल पर बूढ़े सेवक नटवर ने एक ऐसे ही बूढ़े विवश नाग की आँखों से केंचुली छुड़ाई थी।कहते हैं, बुढ़ापे में आँखों के पानी में केंचुली चिपक जाती है। मैं छुड़ाँऊगा। मेरी भी काली पट्टी,अरे मेरी उतरे चाहे न उतरे इस बिचारे का दृष्टि संकट दूर हो। हथेलियाँ हटाऊँ , उनके नीचे लिपटा अगौंछा निकालूँ।
नाग छाती से अपना सिकुड़ा फन रगड़ रहा है। मन में एक अजीब परायापन और साथ ही एक अनोखी शरणागत वत्सलता।
सूरज की बाँहें सरकीं, बाँई हथेली ने अगोंछा भी सम्हाँला।अस्थायी रूप में अंधा नाग सचेत हुआ कि वह निर्जीव वस्तु के पास नहीं है। तब तक सूरज का दाहिना हाथ नाग के फन पर था, बायाँ अँगोछे सहित पूँछ पकड़े था। दाहिनी हथेली में जीमें लपलपाई, पराई बेकली का आभास मिला। सूरज ने सोचा की गल्ती की, अँगोछा दाहिने हाथ में लेना चाहिए था। पर अब तो जो हो गया सो ठीक है। जय श्री राधेगोपाल? उठकर बैठते हुए नाग को खींचकर अपनी गोद में ले लिया। दाहिनी मुट्ठी की हल्की रगड़न से मुँह के आस पास की केंचुल कुछ ढ़ीली पड़ी थी। सूरज के मन में एक अजीब उत्साह और आत्मविश्वास उमड़ रहा था।फन को अपनी जाँघ पर रखकर दाहिने हाथ में अँगोछा सम्हाँलते हुए बोला- “लो अब तुम सुख से यहीं पै गर्दन डालो और मैं पोले पोले उतारूँगा। घबराना मत,भला।”
अंगोछे से पोले-पोले केंचुली ढीली करके खींची जाने लगी। नाग निश्चेष्ट पड़ा था। सूरज के मन में उजाला हो रहा है। आभास होता है कि मानों पिछले पहर की चाँदनी रात में भोर का उजाला भी झलकने लगा है।
हाथ चल रहे हैं, मन वह रहा है-
“प्रभु तुम दीन के दुख हरन।
श्याम सुन्दर मदन मोहन वान असरन सरन।”
अँगोछे में फणधर फड़फड़ाने लगा। सूरज ने अनुमान किया काम बन गया, कपड़ा अब हटा लेना चाहिए। कपड़ा हटते ही फन छटपटाकर हाथ के ऊपर आया, चंचल प्रसन्नता पतली जीभों से लपलपा रही है। इधर उधर, ऊँचे हाथ की कोहनी तक हर्षित नाग चाटता डोल रहा है। अब अपरिचय नहीं है, तनिक भी नहीं। सूरज का हाथ नाग की देह पर फिर रहा है। बूढ़ा जीव ठीक तरह से अपनी केंचुली नहीं उतार सकता। केंचुली उतरी। नया बदन पहले से अधिक झुर्रीदार है, भारी होने पर भी कितना कोमल है यह विषधर।नाग गोद से सरककर लहराता हुआ उतर गया। केंचुली के कुछ टुकड़े पहने हुए अंगोछे पर भी पड़े थे, उन्हें झाड़ा। मन ने चैन थी साँस ली। अनुभूतियों के सरोबर में आत्मविश्वास के कमल खिले।एक बार फिर लेट जाने को जी चाहा। दिन में जब से भोले ने नाग के साथ अपनी बातें सुनाई थीं तभी से सूरज के मन ही मन में यह बाल आग्रह समाया था कि नाग से मैं भी ऐसी ही प्रतीति प्राप्त करूँ।कितने सुखद हैँ यह क्षण।रात से मौन कृष्ण मन सहसा पूछ बैठा- “मुझे देखा सूरज?”
“देखा श्याम, तुम सब में रमते हो।”
नाग की देह फिर बगल से और फन छाती से लगा।इस बार दूध से गीले फन की लाड़ भरी रगड़न। श्याम सखा, यह सुख कितना सुन्दर है। सुन्दरता दोनों ओर से मिलकर एक ओर भी सुन्दर चक्र बनाती है।रस अपना ही रास रचा रहा है। नाग उतर गया, किन्तु जांघ से लगा धीरे धीरे पेट के ऊपर आया। लगता है सर्प अपनी सर्पना सो चुका है, गति में अब फुर्ती नहीं है । लगता हैं बहुत वृद्ध है। अशक्यता में सहायक मनुष्य के प्रति वह कृतज्ञ और आस्थावान है।कैसी लीला है श्याम, मनुष्य ही नहीं हर जीव व्यक्त करने में भिन्नता रखते हुए भी भाव में कितना अभिन्न होता है। अब परायापन नहीं है, भय नहीं है, मृत्यु मिथ्या है, जीवन सत्य है, सुन्दर है।नागराज जांघ पर सरक सरककर चढ़ते हुए पेट पर आ गए। सूरज के वक्षस्थल पर उनकी कुण्डली बँधने लगी। बूढ़ा भले हो परन्तु सर्प अब भी बिजली सी रगड़ मारता है। पूँछ के झटके लगते हैं। छाती पर बोझ रखा है। प्रेम भौर विश्वास का भार।“ताल किनारे वाले घर में दासी सुनैना से एक बार बड़े बड़े गेदों के फूलों का हार उसकी छाती पर रख दिया था। वह श्रृंगार रस भार था किंतु यह भार तो अमृत सुंदर है।” ऐसा लगता है है नागराज गोबर्धन पर्वत हैं और उनके हृदय में खड़े श्याम एक हाथ की अँगुलिया पर गिरी धारण किए दूसरे से बंशी बजा रहे हैं।
“श्याम सुन्दर मदन मोहन बान असरन।
प्रमु तुम दीन के दुख हरन॥”
कब झपकी लगी। कब नागराज उतर कर गए, कुछ भान ही न हुआ।सहसा किसी आदमी ने कुण्ड की जाली के पास बोलकर अंधे सूरज की आँख खोल दी। वह घबराया कि अबेर हो गई।नही, अभी सन्नाटा है। कंस सुल्तान के राज में घाटों पर नहाने की मनाही है, नहीं तो, पुरखे बतलाते थे कि भद्र जन तारों की छैंया में नदी में नहाया करते थे।अब भी घरो में नहाते हैं।
सूरज कोठरी से निकल कर, दाहिने हाथ पतली सी गली में आ गया। लाठी तो नाव में रह गई। बिना सहारे अनजानी जगह की टोह पाने में बड़ी कठिनाई और घबराहट अनुभव की, मगर श्याम सखा तो है। उनका दयादंड मेरी गैल बताएगा। गली पार कर सी, चौड़े में आ गया। ठंडी हवा के झोंके लग रहे हैं। कहाँ जाऊँ? पूरव हवा में दिशा सूघँने लगा। बायीं ओर कल कल करती जमना जी है। सामते जाऊँ तो मरघट होगा। दाहिने हाथ किनारे किनारे चलूँ। रास्ता मिलेगा।
चबूतरा मिला। हाथ टकराया तो उसके सहारे सहारे चलने लगा। किसी के पैरों पर हाथ पड़े।