बहुधा लोग आनन्द और सुख को पर्यायवाची समझते है किन्तु वस्तुतः आनन्द और सुख सर्वथा भिन्न हैं। सुख-दुख भौतिक जगत की अनुभूति है जो शरीर एवं शारीरिक क्रियाकलापों से सम्बन्धित हैं। परन्तु आनन्द आत्मा एवं आत्मिक जगत की अनुभूति है। आनन्द सत्य का पर्यायवाची है क्योंकि आत्मा शाश्वत है इसलिए सत्य भी हमेशा स्थाई रहता है। आनन्द चित्त चैतन्य स्वरूप है इसलिए सत् चित् आनन्द ही परमात्मा है। आनन्द का पर्यायवाची परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं।
जब तक संसार के भोगो की चाह है तब तक मनुष्य कभी भी सुखी नहीं हो सकता जितनी चाह बढ़ती है उतना ही दुखों का विस्तार होता है जैसे-जैसे इच्छा पूर्ण होती है वैसे-वैसे चाहत बढ़ती जाती है।
वह मानव बहुत ही भाग्यशाली है जिसे विषय भोग की इच्छा नहीं है। जिस मनुष्य के सांसारिक विषय जितने अधिक होते हैं वह प्रायः भगवान से उतना ही अधिक दूर रहता है। इसलिए हमें सुख के लिए भगवान से संसार की इच्छा नहीं करनी चाहिए अपितु उनसे उनके चरणों में स्थान देने की प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः
समाधौ न विधीयते।। (२.४४ श्रीमद्भगवद्गीता)
‘जो लोग इन्द्रिय भोगों को तथा भौतिक ऐश्वयों के प्रति अत्याधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं हो पाता।
आज हम जिस धन सम्पत्ति का गर्व करते हैं एवं जिसके लिए जीवन पर्यन्त संघर्षरत रहते हैं वह कल दूसरे का होगा और परसों तीसरा ही उसका भोग करेगा। यह कर्म अनादिकाल से चल रहा है एवं अनादिकाल तक चलता रहेगा यदि यह बात जब पूर्ण रूप से संज्ञान में रहे तो अंधकार (माया) का पर्दा स्वयं ही हट जायेगा।
मनुष्य की प्रायः यह धारणा रहती है कि यदि उनके पास धन, पद, सुविधायें, मान, सम्मान आदि सभी भौतिक सुख प्राप्त हो जायें तो वह शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत कर लेगें। किन्तु ऐसा कभी सम्भव नहीं हो पाता। जरा सा सुख प्राप्त करने के लिए इस संसार में जीव को कठिन संघर्ष करना पड़ता है तत्पश्चात् फिर दुख की स्थिति में आ जाता है। इस प्रकार यह कर्म नित्य चलता रहता है। संसार में ऐसे असंख्य व्यक्ति हैं जिनके पास सभी भौतिक सुख हैं फिर भी वह दुखी रहते हैं। मनीषी और ऋषियों के बताये तीन सुखों को यदि व्यक्ति त्याग दे तो वह आसानी से सुख और संतुष्टि की प्राप्ति कर आनन्द का अनुभव कर सकता है।
पहला त्याजय सुख तामस व्यक्ति को प्रमाद अत्याधिक आलस्य, निद्रा और संकीर्ण सोच से मिलता है इस सुख की प्राप्ति में मनुष्य सुख की अनुभूति तो करता है परन्तु यह बड़ी हानि का द्योतक है।
दूसरा राजस सुख, यह इन्द्रियों के विषय संयोग से मिलता है इस सुख में वस्तुतः सुख तो मिलता है परन्तु वह क्षणिक होता है किन्तु इसके परिणाम दुखद होते हैं।
राजस सुख से ही तीसरी तरह के सुख में दुख का अनुभव होता है यानि जितनी मात्रा में सुख की इच्छा है उतना नहीं मिलना या फिर दूसरों के पास अपने से ज्यादा सुख का होना इस प्रकार वह व्यक्ति अवसाद में पड़ जाता है।
सर्वश्रेष्ठ सुख सात्विक सुख है जिससे आनन्द की प्राप्ति होती है, भले ही प्रारम्भिक अनुभूति कष्टकारी लगे किन्तु भविष्य में इसके परिणाम सुखद होते हैं। आरम्भिक समय का कष्ट व्यक्ति को सांसारिक सुख से हटने के कारण होता है और भविष्य में आनन्द आध्यात्मिक प्रगति यानि शुद्ध भक्ति में प्रामाणिक गुरु के द्वारा कृष्ण भक्ति में लगे हुए व्यक्ति को गुरू के बताये हुए मार्ग पर चलने से होती है जिससे साधक को धीरे-धीरे उसके हृदय में सत् चित् आनन्द का अनुभव होने लगता है।
संसार में अनेक धर्म एवं विचारधाराएं हैं निःसंदेह उनमें चलने से दुःख का निवारण एवं सुख की प्राप्ति हो सकती है परन्तु आनन्द तो केवल भगवद् भक्ति करने से तथा श्रीमदभागवद्गीता एवं श्रीमद्भागवत पुराण के बताए हुए मार्ग का अनुपालन करने से ही प्राप्त होता है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे