उन्नत जीवन के लिए जिस सुख – शांति एवं संपन्नता की आवश्यकता है, उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को “प्राकृतिक अनुशासन” में रहकर ही क्रियाशील होना पड़ेगा। मनुष्य जीवन की तुलना में यदि इस प्रकृति के जीवन, उसके अस्तित्व को देखें तो पता चलेगा कि जड़ होते हुए भी प्रकृति कितनी हरी-भरी और फल-फूलों से संपन्न है। किंतु मनुष्य सचेतन प्राणी होते हुए भी कितना दीन और दु:खी है।
इसका मूल कारण प्रकृति का निश्चित नियमों के अंतर्गत “अनुशासित” होकर चलना है। समस्त नक्षत्र, तारे तथा ग्रह-उपग्रह एक सुनिश्चित अवस्था तथा विधान के अनुसार ही क्रियाशील रहते हैं। वे अपने निश्चित विधान का व्यतिक्रम नहीं करते। कोई लाख प्रयल क्यों न करे, कोई भी ग्रह अथवा उपग्रह अपने उदय, अस्त तथा परिभ्रमण की गतिविधि में कोई परिवर्तन न करेगा। लाख घड़ों से सींचने पर भी कोई पेड़-पौधा बिना ऋतु के फल-फूल उत्पन्न न करेगा।
जो विश्व-विधान समस्त सृष्टि पर लागू है, उसका एक अंश होने से वही विश्व-विधान मनुष्य पर भी लागू है। जिस प्रकार निश्चित नियम का उल्लंघन करते ही सितारे टूट पड़ते हैं, धरती हिल उठती है, उसी प्रकार अपने नैतिक नियमों का उल्लंघन करने पर मनुष्य का सारा जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है, मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और आत्मा का अध:पतन हो जाता है। मनुष्य सुख-शांति का पात्र बनने के स्थान पर दुःख-दरद और कष्ट-क्लेशों का भंडार बन जाता है।