वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! जिसका पुण्य क्षीण हो गया हो, उस ग्रह के समान भूमि पर गिरे हुए पति को देखकर राजा कंस की पत्नियाँ उसके मृतक शरीर को सब ओर से घेरकर बैठ गयीं। जो कभी पृथ्वी के स्वामी और संरक्षक थे, वे ही पतिदेव आयु समाप्त होने पर भूमिमयी शैय्या पर सो रह हैं, यह देख राजा कंस की रानियाँ उसके लिये उसी तरह शोक करने लगीं, जैसे हरिणियाँ यूथपति हरिण के लिये शोकमग्न हो जाती हैं। (वे विलाप करती हुई कहने लगी) ‘हाय! महाबाहु वीर! आपको वीरव्रत प्रिय था। आपके मारे जाने पर हम सब वीर-पत्नियाँ मारी गयी। हमारी आशाओं की हत्या हो गयी। हमारे बन्धु-बान्धव भी (अनाथ होने के कारण) मारे ही गये! राजशिरोमणे! आपकी मृत्यु सम्बन्धिनी इस अन्तिम अवस्था को देखती हुई हम सब (आपकी पत्नियाँ) अपने बान्धवों सहित दीनतापूर्ण विलाप कर रही हैं। प्रभो! आप हमारे महाबली प्राणनाथ थे, आपके मारे जाने से हमारी तो जड़ कट गयी। हाय! आपने हमें त्याग दिया! हा प्राणाधार! हम मन में रति संसर्ग की लालसा रखकर भी (मानावस्था में) प्रणय कोप से युक्त हो जब पृथ्वी पर लताओं की भाँति लोटकर विपरीत चेष्टा करने लगतीं, उस समय आप हमें प्रेमपूर्वक मनाकर शैय्याओं पर सुलातें थे। अब हमें कौन इस तरह उठाकर सेजों तक ले जायेगा?
सौम्य! जिससे मनोरम नि:श्वास वायु निकला करती थी, आपके उस कांतिमान मुख को सूर्य जलरहित (तालाब में उगे हुए) कमल की भाँति अपनी दु:सह किरणों से दग्ध कर रह हैं। यह दुरवस्था आपके योग्य नहीं है। ये आपके कुण्डल रहित सूने कान, जिन्हें सदा ही कुण्डल धारण करना प्रिय रहा है, इस समय कण्ठ में विलीन होकर शोभा नहीं पा रहे हैं। वीर! सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित आपका वह मुकुट कहाँ है, जो आपके मस्तक पर सूर्य की प्रभा के समान अतिशय शोभा का आधान करता था। प्राणनाथ! आपकी ये रानियाँ जो अन्त:पुर की शोभा बढ़ाती थीं, आपके लोकान्तर में चले जाने से अब दीन और अनाथ होकर के निर्वाह करेंगी। नाथ! सुना था, साध्वी स्त्रियाँ न तो प्रिय भोगों से कभी वंचित होती हैं और न उनके प्रति उनका परित्याग ही करत हैं; पंरतु आप तो हमें छोड़कर चले जा रहे हैं (हाय! अब हम कैसे रहेंगी)। अहो! काल महान बल से सम्पन्न है, जो अपनी उलट-फेर क्रिया द्वारा शत्रुओं के लिये काल के समान आपको भी शीघ्रतापूर्वक यहाँ से लिये काल के समान आपको भी शीघ्रतापूर्वक यहाँ से लिये जा रहा है। नाथ! आपने हमें सदा सुखों में ही रखकर पाला-पोसा और बड़ी किया है। हम दु:ख भोगने के योग्य नहीं हैं; किंतु आज आपसे बिछुड़कर विधवा होकर दयनीय दशा को पहुँच गयी हैं। अब हम कैसे यहाँ रह सकेंगी? जिनके मन में सदाचार के पालन का लोभ हो, उन साध्वी स्त्रियों के लिये एकमात्र पति ही परम गति है- सबसे बड़ा सहारा है, किंतु महाबली काल ने हमारे उस सहारे को काट डाला। हम वैधव्य से अभिभूत हो गयी हैं। हमारा मन शोक से संतप्त हो उठा है। हम विपत्ति के उस गहरे कुण्ड में डूब गयी हैं, जहाँ केवल रोना-ही-रोना रह जाता है। अब हम आपके बिना कहाँ जाएगी?
हमारा समय आपके साथ ही बीता हैं। हमने आपके अंग में ही क्रीड़ाएँ की हैं; किंतु एक ही क्षण में हम उस सौभाग्य से वंचित हो गयी। सचमुच ही मनुष्यों की गति! अनित्य है- क्षण भंगुर है। दूसरों को मान देने वाले महाराज! आपके निधन से हम सब-की-सब निर्बल हो गयी। जान पड़ता है, हम सबने समान ही पार किया था, जिससे सबको वैधव्य का चिह्न धारण करना पड़ा। आपने हम रति प्रिया रमणियों को स्वर्ग के समान सुख-भोग देकर सदा हमारा लालन-पालन किया था। हम सभी आपके प्रति कामासक्त रही हैं, फिर आप हमें छोड़कर कहाँ चले जा रहे हैं। देवोपम प्रभो! आप ही हम अनाथाओं के नाथ हैं। जगन्नाथ! मानद! कुररी के समान विलाप करने वाली अपनी इन पत्नियों को कुछ उत्तर देने की कृपा करें। महाभाग! जबकि आपके सभी बन्धु मारे जा रहे हैं और स्त्रियाँ शोक से पीड़ित हैं, ऐसे अवसर पर आपका परलोकगमन हमें बड़ा दारुण प्रतीत होता है। प्रियतम! वीर! निश्चय ही परलोक की सुन्दरियाँ बड़ी ही कमनीय हैं, जिससे आप अपने घर की इन रानियों को छोड़कर उनके पास जाने के लिये प्रस्थित हो गये। अधिक-से-अधिक (सुख-सुविधा) प्रदान करने वाले महाराज! क्या कारण है, जो अपनी इन पत्नियों के रोने और आर्तनाद करने पर भी आप मोहवश इनके दु:ख को समझ नहीं पाते अथवा इस मोहनिद्रा से जाग नहीं उठते हैं।
अहो! पुरुषों की यह पारलौकिक यात्रा बड़ी ही निर्दय होती है; क्योंकि अपनी पत्नियों को छोड़कर उनकी कोई अपेक्षा न रखते हुए चल देते हैं। स्त्रियों का बिना पति के ही रह जाना अच्छा, किंतु उनके लिये शूरवीर पति का होना अच्छा नहीं है; क्योंकि वे शूरवीर स्वर्गलोक की सुन्दरियों को प्रिय होते हैं। और वे सुंदरियाँ भी उन शूरवीरों को प्रिय होती हैं। अहो! जिन्हें युद्ध ही प्रिय था, उन आपको अदृश्यभाव से शीघ्रतापूर्वक ले जाने वाले काल ने हम सबकी अन्तरात्माओं पर एक साथ ही प्रहार किया है। ‘वीरवर! आप युद्ध में जरासंध की सेना का विनाश करके यक्षों को भी हराकर इस भूतल पर एक मनुष्य मात्र के हाथ से किस तरह मार डाले गये? इन्द्र के साथ बाणों द्वारा युद्ध करके जो समरांगण में अमरों से भी पराजित न हो सके, वे ही आप एक मरणधर्मा मनुष्य के हाथ से कैसे मारे गये? आपने अपने बाणों की वर्षा से पाशधारी वरुण को परास्त करके अक्षोभ्य महासागर को भी विक्षुब्ध करते हुए उसके रत्नरुपी सर्वस्व का अपहरण कर दी थी, तब आपने अपने सायकों से बादलों को जीतकर पुरवासियों के हित के लिये बलपूर्वक वर्षा करवायी थी। भूमण्डल के समस्त भूपाल आपके प्रताप से नतमस्तक रहा करते थे और उपहार के रुप में आपके पास अहुमूल्य रत्न एवं वस्त्र भेजते रहते थे। इस प्रकार आप देवताओं के समान तेजस्वी थे। शत्रुओं ने आपके बल-पराक्रम को प्रत्यक्ष देखा था तो भी आपके ऊपर ऐसा प्राणान्तकारी घोर भय कैसे आया। हा नाथ! आपके मारे जाने से आज हमें विधवा की पदवी प्राप्त हुई है। हम सदा प्रमाद से दूर रहती थी; परंतु मतवाले कृतान्त ने हमको भी मिट्टी में मिला दिया। नाथ! आपके मारे जाने से आज हमे भुला ही देना था तो वाणीमात्र से भी ‘मैं जा रहा हूँ’- ऐसा कहकर विदा ले लेने में आपके लिये क्या परिश्रम था।
प्राणनाथ! प्रसन्न होइये। हम भयभीत हैं। आपके चरणों में मस्तक रखकर प्रार्थना करती हैं। नरेश्वर! दूर देश में जाने और रहने से कोई लाभ नहीं। आप घर को ही लौट चलिये वीर! हमें आश्चर्य है, आप तिनकों और धूलों में लोटकर कैसे सो रहे हैं? इस तरह पृथ्वी पर सोये हुए आपके शरीर को उद्वेग क्यों नहीं प्राप्त होता है? जैसे किसी पर सोते समय आघात किया जाय, उस प्रकार किसने हम लोगों को यह अप्रत्याशित (जिसकी हमें कोई आशा नहीं थी, ऐसा) घोर दण्ड दिया है? किस निष्ठुर ने हम सब नारियों पर इस तरह अत्यन्त दारुण प्रहार किया है?
अहो! विधवा नारी जब तक जीवित रहती है, उसे विलाप ही करना पड़ता है। उसका अन्त:करण रोता रहता है। हमें तो पति के साथ ही चलना है, ऐसे अवसर पर हम रो क्यों रही हैं?’ इसी बीच में कंस की दुखिया माता काँपती हुई वहाँ आयी और ‘कहाँ है मेरा बच्चा? कहाँ है मेरा बेटा?’ ऐसा कहकर जोर-जोर से रोने लगी उसने अपने मरे हुए पुत्र को देखा। वह कान्तिहीन चन्द्रमा के समान प्रतीत होता था। उसकी ऐसी दशा देखकर माता का हृदय विदीर्ण हो गया। उसे बार-बार चक्कर आने लगा वह पुत्र के मुख की ओर देखती हुई चीखने लगी- ‘हाय! मैं मारी गयी!’
पुत्र बधुओं के आर्तनाद के साथ रोने-बिलखने लगी पुत्र के जीवन की इच्छा रखने वाली राजमाता उसके दीन मुख को अपनी गोद में रखकर आर्त वाणी में ‘हा पुत्र!’ कहकर करुणाजनक विलाप करने लगी- ‘बेटा! तुम तो वीर-व्रत में तत्पर रहते थे और अपने बन्धुक-बान्धवों का आनन्द बढ़ाते थे। वत्स! तुमने क्यों इतनी जल्दी यहाँ से प्रस्थान किया है? पुत्र! तुम बिना किसी नियम (नियन्त्रण)- के इस अत्यन्त खुले हुए स्थान में क्यों सो रहे हो?
वत्स! तुम्हारे-जैसे शुभ लक्षण सम्पन्न नरेश इस तरह भूमि पर नहीं सोते हैं। तीनों लोकों में जो बल में सबसे बढ़ा-चढ़ा था, उस रावण ने प्राचीन काल में राक्षसों के समुदाय में इस सत्पु्रुषों द्वारा सम्मानित श्लोक का गान किया था। मैं इस प्रकार बल और पराक्रम में बढ़ा हुआ हूँ तथा देवताओं का वध करने में समर्थ हूँ तो भी मुझे अपने ही भाई-बन्धुओं से घोर एवं अनिवार्य भय प्राप्त होता होगा। उसी प्रकार मेरा बुद्धिमान पुत्र अपने सजातीय बन्धुओं पर लुभाया रहता था तो भी इसे भाई-बन्धुओं से ही यह देह विनाशक महान भय प्राप्त हुआ है’।