पूर्णागिरि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त के टनकपुर में अन्नपूर्णा शिखर पर 5500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह 108 सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था। प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं।

किंवदन्ती है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री पार्वती (सती) ने अपने पति महादेव के अपमान के विरोध में दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ कुण्ड में स्वयं कूदकर प्राण आहूति दे दी थी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से महादेव के क्रोध को शान्त करने के लिए सती पार्वती के शरीर के 64 टुकडे कर दिये। वहॉ एक शक्ति पीठ स्थापित हुआ। इसी क्रम में पूर्णागिरि शक्ति पीठ स्थल पर सती पार्वती की नाभि गिरी थी।

यह स्थान चम्पावत से 95 कि॰मी॰की दूरी पर तथा टनकपुर से मात्र 25 कि॰मी॰की दूरी पर स्थित है। इस देवी दरबार की गणना भारत की 51 शक्तिपीठों में की जाती है। शिवपुराण में रूद्र संहिता के अनुसार दश प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ किया गया था। एक समय दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया परन्तु शिव शंकर का अपमान करने की दृष्टि से उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। सती द्वारा अपने पति भगवान शिव शंकर का अपमान सहन न होने के कारण अपनी देह की आहुति यज्ञ मण्डप में कर दी गई। सती की जली हुई देह लेकर भगवान शिव शंकर आकाश में विचरण करने लगे भगवान विष्णु ने शिव शंकर के ताण्डव नृत्य को देखकर उन्हें शान्त करने की दृष्टि से सती के शरीर के अंग पृथक-पृथक कर दिए। जहॉ-जहॉ पर सती के अंग गिरे वहॉ पर शान्ति पीठ स्थापित हो गये। पूर्णागिरी में सती का नाभि अंग गिरा वहॉ पर देवी की नाभि के दर्शन व पूजा अर्चना की जाती है।

जहाँ जहाँ देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए माता सती का “नाभि” अंग चम्पावत जिले के “पूर्णा” पर्वत पर गिरने से माँ “पूर्णागिरी मंदिर” की स्थापना हुई तब से देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिका गिरि , कालिका गिरि , हमला गिरि व पूर्णागिरि में इस पावन स्थल पूर्णागिरि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ।

यह स्थान टनकपुर से मात्र 17 कि॰मी॰ की दूरी पर है। अन्तिम 17 कि॰मी॰ का रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं। नेपाल इसके बगल में है। समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊचाई पर स्थित है। पूर्णागिरी मन्दिर टनकपुर से 20 कि॰ मी॰, पिथौरागढ से 171 कि॰मी॰ और चम्पावत से 92 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। पूर्णागिरी मे वर्ष भर तीर्थयात्रियो का भारत के सभी प्रान्तो से आना लगा रहता है। विसेशकर नवरात्री (मार्च-अप्रिल) के महीने मे भक्त अधिक मात्रा मे यहा आते है। भक्त यहा पर दर्शनो के लिये भक्तिभाव के साथ पहाड पर चढाई करते है। पूर्णागिरी पुण्यगिरी के नाम से भी जाना जाता है। यहा से काली नदी निकल कर समतल की ओर जाती है वहा पर इस नदी को शारदा के नाम से जाना जाता है। इस तीर्थस्थान पर पहुचने के लिये टनकपुर से ठूलीगाड तक आप वाहन से जा सकते हैं। ठूलीगाड से टुन्यास तक सडक का निर्माण कार्य प्रगति पर होने के कारण पैदल ही बाकी का रास्ता तय करना होता है। ठूलीगाड से बांस की चढाई पार करने के बाद हनुमान चट्टी आता है। यहां से पुण्य पर्वत का दक्षिण-पश्चिमी हिस्सा दिखने लगता है। यहां से अस्थाई बनाई गयी दुकानें और घर शुरू हो जाते हैं जो कि टुन्यास तक मिलते हैं। यहा के सबसे ऊपरी हिस्से (पूर्णागिरी) से काली नदी का फैलाव, टनकपुर शहर और कुछ नेपाली गांव दिखने लगते हैं। यहां का द्रश्य बहुत ही मनोहारी होता है। पुराना ब्रह्मदेव मण्डी टनकपुर से काफी नज़दीक है।

नेपाल बॉर्डर पर पढ़ने वाला टनकपुर क्षेत्र उत्तराखंड के चंपावत जिले में पड़ता है। जहां हरे-भरे पहाडों में पूर्णागिरी का निवास स्‍‌थान है। यहां हर साल हजारों भक्त मुरादें मांगने आते हैं।

पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्मकुंड के निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मदेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया । सन् 1632 में कुमाऊं के राजा ज्ञान चंद के दरबार में गुजरात से पहुंचे श्रीचन्द्र तिवारी को इस देवी स्थल की महिमा स्वप्न में देखने पर उन्होंने यहा मूर्ति स्थापित कर इसे संस्थागत रूप दिया।

देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है। आसपास जंगल और बीच में पर्वत पर विराजमान हैं ” भगवती दुर्गा “। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है। इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं चैत्र मास की नवरात्र में यहां मां के दर्शन का विशेष महत्व बढ जाता है।

हर साल इस वक्त भक्तों के आने का सिलसिला लगा रहता है। चैत्र नवरात्र से शुरू होने वाला मां पूर्णागिरी का यह मेला जून माह तक चलता है।

मंदिर में पहुंचने के लिए टैक्सी द्वारा ठूलीगाड़ जाते हैं। जहां से मां पूर्णागिरी की पैदल यात्रा शुरू हो जाती है। ठूलीगाड़ से कुछ दूर हनुमान चट्टी पड़ता है।

यहां आपको अस्थायी दुकान और आवासीय झोपड़ियां दिखाई देंगी। फिर तीन किमी. की चढ़ाई चढ़ने के बाद आप पूर्णागिरी मंदिर पहुंच जाएंगे।

जहां से आप टनकपुर की बस्ती और कुछ नेपाली गांवों देख सकते हैं। यहां से काली नदी को भी ऊंचाई से देखा जा सकता है।

यह मंदिर टनकपुर लखनऊ , दिल्ली , आगरा , देहरादून , कानपुर और अन्य जिलों के साथ सीधी बस सेवा द्वारा जुड़ा हुआ है

इसकी एक कहानी है माँ दुर्गे (पूर्णागिरी देवी) यहाँ बहती हुयी शारदा नदी (गंगा से काट कर निकली गयी) स्नान करने आती हैं प्रात: 4 बजे लोगों में ऐसी मान्यता थी ! माँ के एक भक्त ब्रह्म देव ने निश्चय किया कि वो माँ के दर्शन करेंगें ! 4 बजे वो शारदा नदी के उस स्थल पर पहुचें ! माँ वहां आयी और ब्रह्म देव को वहां देख कर क्रुद्ध हुयी, उन्हें त्रिशूल से उठा कर फेक दिया साथ ही ये कहा तुम मेरे परम भक्त हो तुम जहां पर गिरोगें उस स्थल की परिक्रमा और दर्शन किये बिना मेरे दर्शन पूर्ण नहीं माने जायेगें तब से मां पूर्णागिरी की पूजा के बाद लोग भी उसके वफादार भक्त ब्रह्म देव और नेपाल में स्थित सिद्घनाथ की पूजा करते हैं। उनकी पूजा किए बिना मां पूर्णागिरी के दर्शन पूरे नहीं माने जाते हैं।

पूर्णागिरी मंदिर में स्थित “झूठे का मंदिर” की कहानी
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पौराणिक कथा के अनुसार यह भी उल्लेख है कि एक बार संतान विहीन सेठ को देवी ने सपने में कहा कि “मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हे पुत्र होगा” सेठ ने माँ पूर्णागिरी के दर्शन किये और कहा कि यदि उसका पुत्र होगा तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनाएगा  मनोकामना पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के मंदिर की जगह ताम्बे के मंदिर में सोने की पॉलिश लगाकर देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर जाने लगा तो ” टुन्याश ” नामक स्थान पर पहुचकर वह ताम्बे के मंदिर को आगे नहीं ले जा सका था  तब सेठ को उस मंदिर को उसी स्थान में रखना पडा तब से वो मंदिर पौराणिक समय से वर्तमान में “झूठे का मंदिर” नाम से जाना जाता है।

(पूर्णागिरी मंदिर का इतिहास एवम् मान्यताये)
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पूर्णागिरी मंदिर की मान्यता यह भी है कि देवी और उनके भक्तो के बीच एक अलिखित बंधन की साक्शी मंदिर परिसर में लगी रंगबिरंगी लाल-पीली चीरे आस्था की महिमा को बयान करती है। मनोकामना पूरी होने पर पूर्णागिरी मंदिर के दर्शन व आभार प्रकट करने और ‘चीर की गांठ’ खोलने आने की मान्यता भी है।

नवरात्रियो में पूर्णागिरी मंदिर की मान्यता  यह है कि नवरात्री में देवी के दर्शन से व्यक्ति महँ पुण्य का भागिदार बनता है। देवी सप्तसती में इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियो में वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वो व्यक्ति सभी बाधाओ से मुक्त होकर धन धान्य से संपन्न होगा।

पूर्णागिरी मंदिर के बारे में यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है इसलिए इसकी विशेष महत्वता है लाखो तीर्थ यात्री इस स्थान में मुंडन करने के लिए पहुचते है प्रसिद्ध वन्याविद एवम् आखेट प्रेमी जिम कॉर्बेट ने सन 1927 में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरी के प्रकाश पुंजो को स्वयम देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी और विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफी मशहूर किया। कहा जाता है कि जो भक्त सच्ची आस्था लेकर पूर्णागिरी की दरबार में आता है, मनोकामना साकार कर ही लौटता है।

वैसे तो इस पवित्र शक्ति पीठ के दर्शन हेतु श्रद्धालु वर्ष भर आते रहते हैं। परन्तु चैत्र मास की नवरात्रियों से जून तक श्रद्धालुओं की अपार भीड दर्शनार्थ आती है। चैत्र मास की नवरात्रियों से दो माह तक यहॉ पर मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें श्रद्धालुओं के लिए सभी प्रकार की सुविधायें उपलब्ध कराई जाती हैं। इस शक्ति पीठ में दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों की संख्या वर्ष भर में 25 लाख से अधिक होती है। इस मेले हेतु प्रतिवर्ष राज्य शासन द्वारा अनुदान की धनराशि जिलाधिकारी चम्पावत के माध्यम से जिला पंचायत चम्पावत जोकि मेले का आयोजन करते हैं को उपलब्ध कराई जाती है।

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