सनत्कुमार जी बोले ;– जब युद्ध की सामग्रियों को साथ में लेकर भगवान सदाशिव अपने दिव्य रथ में बैठकर आकाश मार्ग से उन त्रिपुरों के निकट पहुंच गए तब उन्होंने उन त्रिपु का उनके स्वामियों के साथ विनाश करने के लिए रथ के शीर्ष स्थान पर चढ़कर अपने परम दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई परंतु उनका बाण धनुष से नहीं निकला और वे उसी प्रकार उस स्थान पर स्थित हो गए। वे इसी प्रकार अनेक वर्षों तक वहीं खड़े रहे क्योंकि गणेशजी उनके अंगूठे के अग्रभाग में खड़े होकर उनके कार्य में विघ्न डाल रहे थे। इसलिए ही तीनों पुरों का नाश नहीं हो पा रहा था।
इस प्रकार जब भगवान शिव का बाण बहुत समय तक नहीं चला और वे एक ही स्थान पर स्थिर हो गए तो सभी देवता चिंतित हो गए कि ऐसा क्यों हो रहा है?
तभी वहां आकाशवाणी हुई- हे ऐश्वर्यशाली ! देवाधिदेव! सर्वेश्वर कल्याणकारी शिव-शंकर जब तक आप गणेश जी का पूजन नहीं करेंगे, तब तक त्रिपुरों का संहार नहीं कर पाएंगे। आकाशवाणी के वचनों को सुनकर सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब अपने कार्यों को यथाशीघ्र पूरा करने के लिए भगवान शिव ने भद्रकाली को बुलाया । विधि-विधान से सबने मिलकर अग्रपूज्य भगवान गणेश का पूजन संपन्न किया।
पूजन संपन्न होते ही विघ्न विनाशक गणपति प्रसन्न होकर उनके मार्ग से हट गए और उन्होंने कार्य में आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर दिया। उनके हटते ही भगवान शिव को तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली के तीनों नगर सामने नजर आने लगे। तीनों पुर कालवश शीघ्र ही एकता को प्राप्त हुए अर्थात मिल गए। ब्रह्माजी द्वारा प्रदान किए गए वरदान के अनुसार उनके अंत का यही समय था, जब त्रिपुर आपस में मिल जाएं त्रिपुरों को मिला देख सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। वे प्रसन्न होकर भगवान शिव की जय-जयकार के नारे लगाने लगे। तब ब्रह्मा और विष्णुजी ने महेश्वर से कहा कि हे देवाधिदेव! तारकासुर के इन तीनों दैत्य पुत्रों के वध का समय आ गया है। तभी ये तीनों पुर मिलकर परस्पर एक हो गए हैं। इससे पहले कि ये तीनों पुर फिर से अलग हो जाएं, आप इन्हें भस्म कर दीजिए और हमारे कार्य को पूर्ण कीजिए।
तब भगवान शिव ने ब्रह्माजी और श्रीहरि की प्रार्थना स्वीकार करके अपने दिव्य धनुष पर पाशुपतास्त्र नामक बाण चढ़ाया। उस समय अभिजित मुहूर्त था। विशाल धनुष की टंकार से पूरा ब्रह्मांड गूंज उठा। तब भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली को ललकारकर उन पर करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान पाशुपतास्त्र छोड़ दिया। उस बाण की नोक पर स्वयं अग्निदेव विराजमान थे। उन विष्णुमय अग्नि बाणों ने त्रिपुरवासियों को दग्ध कर दिया, जिससे देखते ही देखते वे तीनों पुर एक साथ ही समुद्रों से घिरी भूमि पर गिर पड़े।
सैकड़ों असुर उस अग्निबाण से जलकर भस्म हो गए। चारों ओर हाहाकार मच गया। जब तारकाक्ष अपने भाइयों सहित जलने लगा तब उसे यह एहसास हुआ कि यह सब भगवान शिव की भक्ति से विमुख होने का परिणाम है। तब उसने मन ही मन अपने आराध्य भगवान शिव का स्मरण किया और रोने लगा।
तारकाक्ष बोला ;- हे भक्तवत्सल ! कृपानिधान! करुणानिधान भगवान शिव ! यह तो हम जानते ही हैं कि आप हमें भस्म किए बिना नहीं छोड़ेंगे। फिर भी प्रभु हम आपकी कृपा चाहते हैं। अतः आप हम पर प्रसन्न होइए। भगवन्! जो मृत्यु असुरों के लिए दुर्लभ है, वह हमें आपकी कृपा से प्राप्त हुई है। प्रभु ! बस अब हमारी आपसे सिर्फ एक ही प्रार्थना है कि हमारी बुद्धि जन्म-जन्मांतर तक आप में ही लगी रहे । यह कहकर वे सभी दानव उस भीषण अग्नि में जलकर भस्म हो गए। भगवान शिव की आज्ञा से उन पुरों के बालक, वृद्ध, स्त्रियां- -पुरुष, पेड़-पौधे आदि सभी जीव-जंतु भी अग्नि की भेंट चढ़ गए। उस भीषण अग्नि ने स्थावर जंगम आदि सभी को पल भर में ही राख के ढेर में बदल दिया।
पाशुपतास्त्र से प्रज्वलित अग्नि में सभी जलकर भस्म हो गए परंतु भगवान शिव का भक्त मय नामक दैत्य, जो असुरों का विश्वकर्मा था और जो देवों का विरोधी भी नहीं था, भगवान शिव के तेज से सुरक्षित बच गया। इस प्रकार जिन दैत्यों या प्राणियों का किसी भी स्थिति में मन धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता है, उनका पतन किसी भी स्थिति में, किसी के द्वारा नहीं होता है। इसलिए सज्जन पुरुषों को सदैव अच्छे कर्म ही करने चाहिए। दूसरों की निंदा करने वालों का सदा ही विनाश होता है। अतः हम सभी को परनिंदा से बचना चाहिए और अपने बंधु-बांधवों के साथ इस जगत के स्वामी भगवान शिव की आराधना में तन्मय होकर लगे रहना चाहिए।