मैया नहीं जानती कि वे वास्तव में किन्हें बन्धन में लाने का विचार कर रही हैं। वे श्रीकृष्णचन्द्र के अनन्त, असमोर्द्ध ऐश्वर्य से परिचित नहीं हैं। उनके लिये तो श्रीकृष्णचन्द्र उनके गर्भ-प्रसूत शिशु हैं। जननी के लिये पुत्र का अनुशासन कर्तव्य है। वे तो अपना कर्तव्य करने जा रही हैं। पुत्र छड़ी देखकर अधिक भयभीत हो गया था, इसलिये छड़ी तो फेंक दी; पर शासन आवश्यक है इसलिये बाँधने का विचार कर रही हैं।श्री कृष्ण ने आज अपने घर उत्पात किया है, व्रजेश्वरी का कमोरा फोड़ दिया है, व्रजरानी अतिशय कुपित हो रही हैं- यह समाचार सुनकर दल-की-दल आभीर सुन्दरियाँ नन्दप्रांगण में एकत्र हो रही हैं। पर जो आती हैं, वही श्रीकृष्णचन्द्र को रोते देखकर उन्हीं का पक्ष लेती हैं और यशोदारानी को उनके कोटिप्राणप्रियतम नीलमणि की दशा दिखाकर रिस छोड़ देने के लिये समझाती हैं।
श्रीकृष्ण की ऊखल बंधन लीला……..
आभीर-सुन्दरियों ने श्रीकृष्णचन्द्र को जननी के अनुशासन से मुक्त करने का कम प्रयास नहीं किया, किंतु सब व्यर्थ। यशोदारानी ने सबकी अनसुनी कर दी। उन्हें तो प्रतीत हो रहा है कि सभी दृष्टियों से नीलमणि को घड़ी आध घड़ी के लिये बाँध रखना आवश्यक है, श्रेयस्कर है। अतः सबकी अवहेलना कर वे श्रीकृष्णचन्द्र को बाँधने चलती हैं। किन श्रीकृष्णचन्द्र को?
‘जिन श्रीकृष्णचन्द्र में न बाहर है न भीतर है, सर्वत्र व्याप्त रहने के कारण जिनमें देशगत परिच्छिन्नता नहीं है; जिनका न तो आदि है न अन्त, त्रिकालसत्य तत्त्व होने के कारण जिनमें कालकृत परिच्छिन्नता भी नहीं है; जो अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के सृजन से पूर्व भी विराजित थे, अनन्त ब्रह्माण्डों का विलय हो जाने के पश्चात भी विराजित रहेंगे, जो अनन्त ब्रह्माण्डों के अन्तराल में अवस्थित हैं, साथ ही उनके बाहर भी विराजित हैं; जो स्वयं ही प्राकृत-अप्राकृत समस्त विश्वब्रह्माण्ड बने हुए हैं उन अचिन्त्यस्वरूप, अधोक्षज (इन्द्रियागोचर) नराकृति परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र को अपना उदरजात पुत्र मानकर-जैसे कोई काष्ट-पुत्तलिका को बाँधने चले, इस प्रकार व्रजमहिषी ऊखल से बाँधने जा रहीं हैं।बन्धन का अर्थ क्या है? किसी सीमित ओर छोरवाली वस्तु को उसकी अपेक्षा एक अधिक विस्तारवाली वस्तु से वेष्टित कर देना, लपेट देना। पर जननी यशोदा श्रीकृष्णचन्द्र की सीमा, उकना ओर-छोर कहाँ पायेंगी? उनको लपेटने के योग्य उनसे बड़ी वस्तु उन्हें कहाँ मिलेगी? श्रीकृष्णचन्द्र को वे कैसे बाँध सकेंगी? किंतु यह तत्त्वज्ञान वात्सल्यरस-घनमूर्ति यशोदारानी के हृदय को स्पर्श ही नहीं करता। वे तो प्रत्यक्ष प्रतिदिन उन असीम को अपनी भुजाओं में बाँध लेती हैं, इस समय भी उनका एक हाथ उनकी एक मुट्ठी में बँधा है। फिर भला, उनको उदरबन्धन के योग्य वस्तु क्यों नहीं मिलेगी? वे तो आज श्रीकृष्णचन्द्र को अवश्य बाँधेंगी। इसीलिये अब अधिक विलम्ब न करके, अपने सिर की स्खलित वेणी से वेणीबन्धन की सुकोमल पट्टडोरी (रेशमी डोरी) निकाल लेती हैं तथा उसे श्रीकृष्णचन्द्र के कटिदेश में लपेटना आरम्भ करती हैं।
अब तो श्रीकष्णचन्द्र उच्च स्वर से क्रन्दन करते हुए बार-बार पुकारने लगते हैं- ‘अरी रोहिणी मैया! दौड़, देख-मैया मुझे बाँध रही हैं; तू मुझे छुड़ा ले।’ किंतु आज रोहिणी मैया भी यहाँ नहीं, जो आकर उन्हें छुड़ा सकें। वे तो उपनन्द के घर गयी हुई हैं। इसीलिये श्रीकृष्णचन्द्र का बन्धन से छूटने के लिये यह उपाय भी असफल हो जाता है। जिनके नाम को कवेल एक बार ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य का अनादि कर्मबन्धन उसी क्षण छिन्न-भिन्न हो जाता है-ऐसा कर्मबन्धन जिसे मुमुक्षु पुरुष योगसाधन आदि बड़े-बड़े उपायों के द्वारा बड़ी कठिनाई से काट पाते हैं, वह तत्क्षण नष्ट हो जाता है; जिनके नाम की इतनी महिमा है।वे श्रीकृष्णचन्द्र आज जननी के भावी बन्धन से मुक्त होने के लिये रो-रोकर पुकार रहे हैं, फिर भी उनकी रक्षा नहीं हो पा रही है। बाल्यलीला-बिहारी व्रजेन्द्रनन्दन! बलिहारी है तुम्हारी इस विश्वविमोहिनी लीला की! वहाँ उपस्थित गोपसुन्दरियों को तो अवश्य ही श्रीकृष्णचन्द्र का यह क्रन्दन असह्य हो गया है। वे अत्यन्त रूक्ष होकर व्रजेश्वरी को बार-बार समझाती हैं।पर नन्दरानी तो मानती नहीं। श्रीकृष्णचन्द्र भी बन्धन के भय से अपने सारे अंकों को हिलाकर जननी की मुट्ठी से छूटना चाहते हैं- कभी भूमि पर पसर जाते हैं तो कभी जननी के पृष्ठदेश की ओर छिपने लगते हैं; किंतु जननी न तो हाथ छोड़ती हैं न बन्धन का आग्रह। एक हाथ से श्रीकृष्णचन्द्र को दबाये रखकर दूसरे हाथ से उस पट्टडोरी को कटि में लपेटने की चेष्टा में लगी हैं, प्रायः लपेट लेती हैं। अब गाँठ देने चलती हैं, पर गाँठ नहीं लगा पातीं; क्योंकि वह पट्टडोरी दो अंगुल छोटी पड़ गयी। क्षणभर के लिये मैया रुकीं। अपराधी पुत्र को बाँधकर शासन तो उन्हें करना ही है! अतः वेणी से तुरंत उन्होंने दूसरी डोरी निकाल ली और उसे पहली में जोड़ लिया।दूसरी डोरी जोड़कर, उसे श्रीकृष्णचन्द्र के उदर पर यथास्थान स्थापित कर जब मैया गाँठ देने चलीं तो पुनः दो अंगुल का अन्तर पड़ गया। मैया ने सोचा-‘चंचल नीलमणि भागने की चेष्टा में अपने अंगों को अत्यधिक कम्पित कर रहा है, इसीलिये डोरी इधर-उधर उलझकर पुनः दो अंगुल छोटी हो गयी है; इसे किंचित और बड़ी ना लूँ।’ यह सोचकर मैया ने अपने कबरों में बँधी तीसरी पट्टडोरी को भी निकाल लिया, उसे भी जोड़ लिया तथा यह करके, उसे लपेटती हुई, पुनः श्रीकृष्णचन्द्र के पृष्ठदेश की ओर गाँठ देने के लिये अपना हाथ ले गयीं; किंतु इस बार भी पहले की भाँति ही गाँठ लगने में कठिनाई अनुभव हुआ।
मैया ने जब उस ओर नेत्र फिराकर देखा तो दीखा-ठीक दो अंगुल का व्यवधान इस बार भी हो रहा है। अब तो मैया को अत्यधिक आश्चर्य होने लगा; क्योंकि पहली डोरी ही बन्धन के लिये पर्याप्त थी तथा उसमें दूसरी, तीसरी भी संनद्ध कर दी गयी; फिर भी दो अंगुल की न्यूनता नहीं पूर्ण हुई।