सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥
हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है, उन्ही के चरित्र की प्रधानता श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में सर्वत्र हुई है। सुन्दरकाण्ड का पाठ अधिकतर मानस प्रेमी घर घर में करते-कराते हैं। परन्तु ,सुन्दरकाण्ड के मर्म का चिंतन न कर केवल उसका पाठ यांत्रिक रूप से कर लेने से हमें वास्तविक उपलब्धि नहीं हो पाती है जो कि होनी चाहिये।
रामायण केवल कथा ही नहीं है। इसमें कर्म रुपी यमुना,भक्ति रुपी गंगा और तत्व दर्शन रुपी सरस्वती का अदभुत और अनुपम संगम विराजमान है। आईये इस् प्रस्तुति में भी हम हनुमान लीला का रसपान करने हेतु श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का तात्विक अन्वेषण करने का कुछ प्रयत्न करते हैं।
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है। हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,जो कि सुन्दरकाण्ड का मुख्य आधार है। इस् काण्ड का नामकरण इसीलिए हनुमानकाण्ड न किया जाकर सुन्दरकाण्ड किया गया है।
सुन्दरकाण्ड में तीन प्रकार की शरणागति का विषद वर्णन हुआ है!
(१) हनुमान की शरणागति
(२) विभीषण की शरणागति
(३) समुन्द्र की शरणागति.
सुन्दरकाण्ड का मर्म समझने हेतु शरणागति को समझना अति आवश्यक है। यदि ध्यान से देखा जाए तो शरणागति ही हमारे शास्त्रों का वास्तविक लक्ष्य है। श्रीमद्भगवद्गीता में अपना उपदेश पूरा करने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को निम्न उपदेश देते हैं ।
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा।
यह वाक्य शरणागति का गहन रहस्य प्रकट करता है। सम्पूर्ण धर्मों के त्याग का अर्थ यहाँ सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय के त्याग से है। अपने सभी धर्मों को निष्ठापूर्वकनिभाएं यथा अपने शरीर पालन करने का धर्म,माता पिता के प्रति संतान होने का धर्म,संतान के प्रति माता-पिता होने का धर्म,भ्राता धर्म,मित्र धर्म, देश और लोक के प्रति देश धर्म,लोक धर्म, आदि आदि,परन्तु, सभी धर्मों का आश्रय केवल परमात्मा यानि सत्-चित-आनन्द को पाना हो तो ही जीवन में भटकाव दूर हो जीव का उद्धार हो सकता है।
परमात्मा की शरण में आने से जीव निर्भय और पापरहित होकर सत्-चित -आनन्द में रमण करने का अधिकारी हो जाता है। परन्तु,यदि आश्रय सत्-चित-आनन्द का न होकर अन्यत्र हो तो जीवन में ठहराव नहीं आने पाता है, भटकन बनी रहती है और अंततः ठोकरे ही लगती हैं।
अध्यात्म में समुद्र देह अभिमान का प्रतीक है.यानि हम अजर,अमर ,नित्य आनंदस्वरूप आत्मा होते हुए भी स्वयं को देह माने रहते है। विनयपत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है ‘कुणप -अभिमान सागर
भयंकर घोर’, यानि देह का अभिमान घोर और भयंकर सागर है। हम सब में जो थोड़ी थोड़ी साधना करने वाले हैं वे सब जानते हैं कि भर्सक प्रयत्न करने के बाबजूद भी हम देहाभिमान के किनारे ही खड़े रह जाते हैं।
जैसे कि सीता जी की खोज करते हुए सभी वानर समुन्द्र के किनारे खड़े हुए समुन्द्र को लाँघने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।
परन्तु,हनुमानजी जो केवल रामजी के ही शरणागत हैं,जपयज्ञ और प्राणायाम स्वरुप हैं,इस देहाभिमान रुपी समुन्द्र को राम काज करने हेतु लाँघने में समर्थ होते हैं। सीता की खोज यानि परमात्मा को प्राप्त करने की परम चाहत की खोज ,.जो अहंकार रुपी रावण की नगरी में कैद हुई है, ही ‘राम काज’ है।
शरणागति और रामकाज की बात सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी के मुख से ‘बार बार रघुबीर संभारी’,’राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम’ आदि वचनों द्वारा सुन्दर प्रकार से वर्णित हुई है।
जब हनुमान जी लंका दहन कर राम जी के पास आये तो राम जी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा ‘प्रति उपकार करौं का तोरा, सन्मुख होइ न सकत मन मोरा’ यानि हनुमान जी, मैं आपका कोई प्रति उपकार करने लायक नहीं हूँ ,यहाँ तक कि मेरा मन भी तुम्हारी ओर नहीं देख पा रहा है,तुम्हारा सामना नहीं कर पा रहा है।
यह निरभिमानी के लिए अति कठिन परीक्षा है। परन्तु,राम जी के इन वचनों को सुनकर भी निरभिमानी हनुमान प्रेमाकुल हो उनके चरणों में पड़कर त्राहि त्राहि करने लगे। ‘चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत’, मैं आपकी शरण में हूँ,मुझे बहुत जन्म हो गए हैं गिरते पड़ते,ऐसी बातें कहकर मुझे अपनी माया में न उलझाईये,मुझे बचा लीजिए,बचा लीजिए।
अपने किये हुए काज का किंचितमात्र भी अभिमान नहीं है हनुमान जी में। हनुमान जी की शरणागति सम्पूर्ण और अनुपम शरणागति है।
जब सीता जी ने ‘अजर अमर गुननिधि सुत होहू, करहूँ बहुत रघुनायक छोहू’ का आशीर्वाद हनुमान जी को दिया तो भी वे राम जी के निर्भर प्रेम में मगन हो गए। ‘ ‘करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना,निर्भर प्रेम मगन हनुमाना’।
इसके बाद ही शरीर धर्म के पालन हेतु उन्होंने सीता जी से आज्ञा माँगी ‘सुनहु मातु मोहि अतिशय भूखा,लागि देख सुन्दर फल रूखा’।
राम काज के लिए उन्होंने मान अपमान की भी कोई परवाह नहीं की। मेघनाथ के ब्रह्मास्त्र से जानबूझ कर बंधकर,राक्षसों की लात घूंसे खाते हुए घसीट कर ले जाते हुए भी रावण की सभा में वे गए,रावण को समझाने की कोशिश की ,वह नहीं माना तो लंका दहन किया।
‘कौतुक कहँ आये पुरबासी,मारहिं चरन करहिं बहु हांसी,बाजहिं ढोल देहीं सब तारी ,नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी’। हनुमान जी की शरणागति श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक को पूर्णतया चरितार्थ करती है। सभी धर्मो का पालन करते हुए भी उनका आश्रय केवल राम जी के शरणागत रहना ही है।
विभीषण जी ऐसे विवेक का प्रतीक हैं जो ‘अहंकारी’ रावण का छोटा भाई बन कर उसकी लंका नगरी में रह रहा है। उनकी शरणागति हनुमान जी की है। जो शुरू में राम जी की भक्ति लंका का राज्य प्राप्त करने हेतु कर रहे थे और अधर्मी रावण की लंका नगरी भ्रात धर्म,देश धर्म आदि के कारण छोड़ नहीं पा रहे थे।
जैसे कि कोई व्यक्ति जीवन में भगवान की भक्ति से केवल भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त कर अधर्म पर आधारित सांसारिक धर्मों का ही निर्वाह करना चाहता है। परन्तु,हनुमान जी के दर्शन,सत्संग और मार्ग दर्शन से विभीषण की शरणागति भी अंततः उच्च स्तर की हो गयी। जब उन्होंने भ्रात धर्म आदि के मोह से मुक्त हो लंका का त्याग किया और राम जी का साक्षात्कार किया।
उन्होंने राम जी के समक्ष स्वीकार किया भी ‘उर कछु प्रथम बासना रही,प्रभु पद प्रीति सरित सो बही’। विभीषण की शरणागति पहले वासना सहित थी ,जो हनुमान जी की कृपा से वासना रहित हो गयी।
यदि हम विभीषण जैसी स्थिति में हैं और ईश्वरभक्ति केवल भौतिक सुख सम्पदा पाने के लिए, अधर्म का और रिश्ते नातों का गलत प्रकार से पोषण करने के लिए कर रहें हैं, तो हनूमंत सत्संग की हमें भी परम आवश्यकता है।
समुन्द्र वाली शरणागति मजबूरी की डंडे वाली शरणागति है। ‘बिनय न मानत जलधि जड ,गए तीनि दिन बीति ,बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति’। जो परिस्थिति को नहीं समझता,पाप -पुण्य,भला बुरा नहीं समझता,धर्मों की मर्यादा के बहानों में बंधा रह कर ही ‘राम काज’ में निमित्त भी नहीं बनना चाहता,उसे जब ठोकरें लगें और डर कर वह प्रभु की शरण में आये तो ऐसी शरणागति निम्नतम स्तर की शरणागति है। यदि जीवन में ऐसी शरणागति भी हो सके तो इसे प्रभु की कृपा ही समझिये।
* कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
भावार्थ:-जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥