एक बार एक मानव एक सन्त के पास गया और बोला आप मुझे दीक्षा देकर मेरा उद्धार कीजिये परन्तु मेरी कुछ मांगों को पूरा करके मुझ पर कृपा करें आशा है कि आप मुझे निराश नही लौटायँगे सन्त उसके भाव पर रीझकर बोले ठीक है मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा तुम अपनी माँग रखो भक्त चरण स्पर्श करके बोला कि मै शराब नही छोड़ सकता और भजन भी करना चाहता है सन्त ने मुस्कुराकर कहा और कोई समस्या भक्त ने झिझकते हुये कहा मैं चोटी भी नही रखना चाहता ! सन्त ने फिर कहा कोई और इच्छा तो बाकी नही रह गई उसने प्रसन्न होकर कहा नही प्रभु और कोई इच्छा नही हैसन्त ने भुकुटी पर तिलक छाप देकर गले में कण्ठी पहना दी और कानों में गुरु मंत्र दे दिया और बोले आज से तुम्हे वैष्णव जीवन जीना है अर्थात मिथ्याचार और व्यभिचार त्यागकर दिन में कम से कम 40 मिनट हरि भजन करना है तथा जब भी तुम शराब का सेवन करो तो उसका दुष्परिणाम और दुष्प्रभाव मुझे समर्पण कर देना अर्थात तुम्हारे द्वारा किये गये दुष्कर्म का दंड मै भोगूँगा तुम नही
शिष्य बड़े भारी मन से उठकर घर आ गया घर पहुंचा तो मस्तक पर तिलक छाप व गले मे कण्ठी देखकर घर के लोग सम्मान की दृष्टि से देखने लगे जो लोग सीधे मुंह बात भी नही करते थे वह अब रुक रुक कर बात करना चाहते थे वह अच्छा महसूस करने लगा तथा उसके मुंह से जो भी बात निकलती उसकी बात का घर परिवार व समाज मे वजन बढ़ने लगा
अब अंदर से तो शराब पीने की इच्छा होती नही परन्तु दिमाग मे रह रह कर शराब की याद आती कि बहुत दिन हो गये आज पिऊँगा और एक दिन वह शराब की बोतल खोलकर बैठ गया जैसे ही गिलास मुंह से लगाया तुरन्त गुरुदेव की स्मृति हो आई कि मेरे द्वारा किये गये पापों का दंड उन्हें भोगना होगा
गिलास छूट गया और आँखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी।
अगले ही दिन सन्त दर्शन के लिए गया और दण्डवत प्रणाम करके रोने लगा सन्त ने पूछा क्या हुआ क्या मैने कोई ज्यादा कठिनाइयों भर जीवन दे दिया
शिष्य बोला नही भगवन जीवन तो मैने आपका संकट में डाल दिया है मेरे पाप कर्मों का दण्ड आप क्यों भोगेंगे मुझसे घोर अपराध हुआ है अपने मुझे शरणागति प्रदान कर मेरा उद्धार किया और मैने आपका ही जीवन संकट में डाल दिया ।