जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव

जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव

प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ता बोझ: अत्यधिक जनसंख्या प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण पर प्रभाव ड़ालती है। बढ़ती आबादी खाद्य, पानी और का उत्पादन करने के लिए पृथ्वी पर भार डालती है और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भी। नतीजन, लोगों को कुपोषण, भुखमरी और अस्वस्थ रहने की स्थिति का सामना करना पड़ता है। जनसंख्या वृद्धि प्रदूषण और वनों की कटाई के गंभीर रूपों की दर्शाता है।
गरीबी में वृद्धि: जनसंख्या वृद्धि अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के दुष्चक्र को जन्म देती है। शिक्षा का अभाव लोगों को अपनी आजीविका कमाने और अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के अवसरों से वंचित रखती रखता है।
अमीरी-गरीबी का अंतर: जनसंख्या वृद्धि से धन और आय का असमान वितरण होने के कारण, अमीरों और गरीबों के बीच का अंतर सदैव बना रहता है।
जनसंख्या प्रवास: स्थानान्तरण एक प्राकृतिक मानव गुण है। जब उपलब्ध वित्तीय संसाधनों की तुलना में किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या वृद्धि असंतुलित हो जाती है, तो लोग अपने मूल स्थान को छोड़कर दूर जाने लगते हैं। यह मधुमक्खी के छत्ते की घटना से तुलनीय है –जब उनके छत्ते पूरी तरह से भर जाते है, तो वे उसे छोड़कर कहीं और चली जाती हैं, उसी प्रकार, मनुष्य भी एक समय के लिए एक स्थान पर रुकते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं, मनुष्य अपवादों को छोड़कर आम तौर पर कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहते।
आरक्षण :-  भारत मेँ आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश राज मेँ ही कर दी गई थी।अंग्रेजोँ का मकसद इसका इस्तेमाल भारत को जातियोँ के आधार पर बाट कर उस पर शासन करना था और वह इस प्रक्रिया मेँ सफल भी हुए। परंतु अफसोस की बात यह है कि अंग्रेजोँ के जाने के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भी इस नीति पर अमल करना जारी रखा। उनका विचार था कि इस नीति से भारत की दबी कुचली जातियों का उद्धार होगा।सरकारी नौकरियोँ वह कॉलेज मेँ अपने लिए सीट आरक्षित कर वे अपना हक पा सकेंगे।परंतु क्या एक वर्ग के बारे मेँ सोचकर बाकी सभी वर्गो को नजरअंदाज करना सही है? क्या यह प्रक्रिया पूर्ण रुप से देश के सभी नागरिकोँ के हित मेँ है? आरक्षण का यह विचार बेरोज़गारी से उत्पन्न हुआ है, आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक रुप से कमजोंर तबको के लिए बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। इसी बेरोज़गारी के जंजाल से बचने के लिए आरक्षण जैसे कई प्रावधान प्रस्तावित किए जाते हैँ जिससे कि लोगोँ को गरीबी से उभारा जा सके और भारत एक संपन्न राष्ट्र बन सके।

देश में जनसंख्या वृद्धि की समस्या आज अत्यंत भयावह स्थिति मं है जिसके फलस्वरूप देश को अनेक प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। देश में उपलब्ध संसाधनों की तुलना में जनसंख्या अधिक होने का दुष्परिणाम यह है कि स्वतंत्रता के पाँच दशकों बाद भी लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही है। इन लोगों को अपनी आम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। हमने निस्संदेह नाभिकीय शक्तियाँ हासिल कर ली हैं परंतु दुर्भाग्य की बात है कि आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं। देश में बहुत से बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि एक स्वस्थ भारत की हमारी परिकल्पना को साकार रूप देना कितना दुष्कर कार्य है।

भारत सरकार ने विगत वर्षों में इस दिशा में अनेक कदम उठाए हैं परंतु इन्हें सार्थक बनाने के लिए और भी अधिक कठोर उठाना आवश्यक है। देश के स्वर्णिम भविष्य के लिए हमें कुछ ऐसे निर्णय भी लेने चाहिए जो वर्तमान में भले ही अरूचिकर लगें परंतु दूरगामी परिणाम अवश्य ही सुखद हों – जैसे हमारे पड़ोसी देश चीन की भाँति एक परिवार में एक से अधिक बच्चे पर पांबदी लगाई जा सकती है। अधिक बच्चे पैदा करने वालों का प्रशासनिक एंव सामाजिक स्तर पर बहिष्कार भी एक प्रभावी हल हो सकता है। यदि समय रहते इस दिशा में देशव्यापी जागरूकता उत्पन्न होती है तो निस्संदेह हम विश्व के अग्रणी देशों में अपना स्थान बना सकती हैं।

भारत मेँ आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश राज मेँ ही कर दी गई थी।अंग्रेजोँ का मकसद इसका इस्तेमाल भारत को जातियोँ के आधार पर बाट कर उस पर शासन करना था और वह इस प्रक्रिया मेँ सफल भी हुए। परंतु अफसोस की बात यह है कि अंग्रेजोँ के जाने के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भी इस नीति पर अमल करना जारी रखा। उनका विचार था कि इस नीति से भारत की दबी कुचली जातियों का उद्धार होगा।सरकारी नौकरियोँ वह कॉलेज मेँ अपने लिए सीट आरक्षित कर वे अपना हक पा सकेंगे।परंतु क्या एक वर्ग के बारे मेँ सोचकर बाकी सभी वर्गो को नजरअंदाज करना सही है? क्या यह प्रक्रिया पूर्ण रुप से देश के सभी नागरिकोँ के हित मेँ है? आरक्षण का यह विचार बेरोज़गारी से उत्पन्न हुआ है, आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक रुप से कमजोंर तबको के लिए बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। इसी बेरोज़गारी के जंजाल से बचने के लिए आरक्षण जैसे कई प्रावधान प्रस्तावित किए जाते हैँ जिससे कि लोगोँ को गरीबी से उभारा जा सके और भारत एक संपन्न राष्ट्र बन सके। परंतु क्या यह सुविधाएँ असल और पर जरुरतमंद लोगोँ तक पहुंच पाती है? आर्थिक तौर से पिछड़े लोग अभी भी पीछे ही रह गए हैँ, इन सुविधाओं का लाभ भी सम्पन्न वर्ग ही उठा रहा है। इसी तरह गुजरात मेँ ‘संपन्न’पटेलोँ का आरक्षण-विस्फोट ना आकस्मिक है और न अंतिम। अगर लोग बड़ी संख्या मेँ बेरोज़गारी की चपेट मेँ है तो इसका सीधा संबंध जातिगत आरक्षण से नहीँ है,इसका संबंध रोज़गार लुप्प होने से है। मान लीजिए आज भारत मेँ जातिगत आरक्षण का प्रावधान समाप्त कर दिया जाए और सभी लोग सामान्य श्रेणी मेँ आ जाएं,तो उस हालत में भी रोजगार पाने वालोँ की कुल संख्या मेँ तो कोई वृद्धि नहीँ होगी। व्यवहार मेँ आर्थिक आरक्षणों का लाभ उच्च और शक्तिशाली जातियों के सदस्योँ को मिलेगा न कि कमजोर तबको के गरीबो को। किन्हीं गरीबो को मिलेगा इस पर भी संदेह होना स्वाभाविक है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की राजपत्रित अधिसूचना के अनुसार, ‘संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019 की धारा 1 की उपधारा (2) के तहत प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार 14 जनवरी को उस तारीख के रूप में चिहि्नत करती है जिस दिन कथित कानून के प्रावधान प्रभाव में आएंगे।’  संसद ने 9 जनवरी को विधेयक को मंजूरी दी थी।

1. भूमिका:
आरक्षण (Reservation) का अर्थ है सुरक्षित करना । हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित करने या रखने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को होती है, चाहे वह रेल के डिब्बे में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात हो तो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की । लोग अनेक तरह की दलीलें (Arguments) देकर अपनी जगह सुनिश्चित करवाने और सामान्य प्रतियोगिता (Common Competition) से अलग रहना चाहते हैं ।
2. आरक्षण के आधार:
आरक्षण पाने का कोई आधार होना आवश्यक है । रेल, बस आदि में सफर करना हो, तो आरक्षण के लिए किराये म्र छ द्व8 के अलावा कुछ अतिरिक्त राशि (Extra Amount) देना आवश्यक होता है, अन्यथा (Otherwise) आपको भीड़ में या पंक्ति (Queue) में रहना पड़ेगा ।
गारंटी नहीं कि आप यात्रा कर पायेंगे अथवा नहीं । यदि कहीं अस्पताल में आपको चिकित्सा करवानी हो या किसी डॉक्टर से इलाज कराना हो, तो अतिरिक्त राशि दीजिए नहीं तो आपको अच्छी सुविधा या अच्छी चिकित्सा नहीं मिल सकती ।
यदि आप चुनाव में जीतना चाहते हैं तो किसी बड़ी जनसंख्या (Population) वाली जाति या धर्म का होना जरूरी है अथवा किसी आरक्षित जाति का होना जरूरी है । किसी सरकारी विभाग में नौकरी कम अंकों पर (Lower Marks) मिल जाए, इसके लिए भी किसी खास जाति का होना आवश्यक होता है ।

प्रकार जाति, धर्म धन आदि आज हमारे समाज में सुविधाओं (Previleges) को सबसे पहले और सबसे अधिक पाने का आधार (Base) हैं । यहीं नहीं कुछ खास पदों (Posts) पर होना भी आरक्षण पाने के लिए जरूरी समझा गया है ।
3. लाभ-हानि:
आरक्षण वास्तव में समाज के उन्हीं लोगों के लिए हितकर (Beneficial) हो सकता है जो अपंग (Phisycally disabled) हैं किंतु शिक्षा और गुण (Quality) होते हुए भी अन्य लोगों से जीवन में पीछे रह जाते हैं । उन गरीब लोगों के लिए भी आरक्षण आवश्यक है जो गुणी होते हुए भी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं ।
केवल जाति, धर्म और धन के आधार पर आरक्षण से गुणी व्यक्तियों को पीछे धकेल (Push) कर हम देश को नुकसान ही पहुँचा रहे हैं । यह देश जाति-धर्म, धनी-गरीब आदि आधारों पर और अधिक विभाजित (Divided) होता जा रहा है ।
4. उपसंहार:

आज यदि हम देश को उन्नति (Progress) की ओर ले जाना चाहते हैं और देश की एकता बनाये रखना चाहते हैं, तो जरूरी है कि आरक्षणों को हटाकर हम सबको एक समान रूप से शिक्षा दें और अपनी उन्नति का अवसर (Opportunity) पाने का मौका दें ।

जनसंख्या वृद्धि एक अवांछनीय स्थिति को प्रदर्शित करता है जहां जनसंख्या उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से कई गुना अधिक बढ़ गई है। आज, दुनिया में लगभग 7 अरब से अधिक लोग निवास करते है, उनमे  चीन सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले देश के रूप में सूची में सबसे ऊपर है और उसके बाद भारत का नाम है। जनसंख्या वृद्धि, दुनिया में अविकसित, गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में बाधा बनती है। आबादी के आंकड़े एक विडंबनात्मक की स्थिति प्रस्तुत करते हैं।
भारत में जनसंख्या वृद्धि
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है,हमारा देश जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उनमे से जनसंख्या वृद्धि सबसे गंभीर समस्या है। क्योकि हमारे देश की अकेले की आबादी 1.20 अरब है जबकि पुरे विश्व की 7 अरब है।
दिलचस्प बात तो यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका, जो दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देशों की सूची में तीसरे स्थान पर है, वहां  311.1 मिलियन लोग रहते हैं, जिनमें भारत की आबादी का केवल 1/4 वां हिस्सा समावेश है। यह अंतर तब और अधिक आश्चर्यचकित हो गया जब यह माना जाने लगा कि संयुक्त राज्य अमेरिका आकार में भारत की तुलना में तीन गुना बड़ा है।
कुछ भारतीय राज्य जनसंख्या के मामले में, कई देशों से अधिक हैं। उत्तर प्रदेश 166 मिलियन की आबादी के साथ रशियन फेडरेशन  146.9 मिलियन से पिछे छोड आगे बढ़ गया है। इसी प्रकार, उड़ीसा की आबादी कनाडा से और छत्तीसगढ़ ऑस्ट्रेलिया से अधिक है।

पारिवार नियोजन की कमी: अगर हम गर्भपात की संख्या जोड़ते हैं (2010-11 में 05 करोड़) देश में जन्म की अनुमानित संख्या के साथ(2010-11 में 6.20 लाख) एक साल में यहां तक कि पारिवारिक नियोजन की इस उम्र में, एक महिला, औसत पर, 15-45 साल के आयु वर्ग में किसी भी समय गर्भवती हो जाती है।यह सब इसलिए होता है क्योंकि हमारे देश में बड़ी संख्या में लोग परिवार नियोजन के विभिन्न फायदों और समाज पर अधिक जनसंख्या के दुष्प्रभावों के बारे में कोई जागरूकता नहीं रखते हैं।
बाल विवाह: बाल विवाह हमारे देश की प्रमुख सामाजिक समस्याओं में से एक है। आज भी, बड़ी संख्या में लड़कों और लड़कियों की शादी उस उम्र में की जाती है जब वे पारिवारिक जिम्मेदारियों को सम्भालने के लिए सामाजिक, शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार नहीं होते हैं। अपरिपक्व उम्र में विवाह होने से शिशुओं की मृत्यु दर भी अधिक बढ़ जाती है।
शिक्षा की कमी: पारिवारिक नियोजन की विफलता बड़े पैमाने पर अशिक्षा से सीधे संबंध रखता है। जो उपरोक्त वर्णित बाल विवाह, महिलाओं की निम्न स्थिति, उच्च बाल-मृत्यु दर आदि में भी अपना योगदान देती देता है। अशिक्षित परिवार बढ़ती जनसंख्या दर के कारण होने वाली समस्याओं को समझने में असक्षम हैं। वे जनसंख्या को नियंत्रित करने, गर्भ निरोधकों और जन्म नियंत्रण उपायों के उपयोग के विभिन्न तरीकों के बारे में कम से कम जानते हैं।
धार्मिक कारण: रूढ़िवादी और परम्परावादी लोग परिवार नियोजन उपायों के उपयोग के विरोध में होते हैं। ऐसे परिवारों में महिलाओं को परिवार नियोजन में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है, क्योंकि इन रूढ़िवादीयों का यह मानना होता है कि महिलाओं को भगवान की इच्छाओं के खिलाफ नहीं जाना चाहिए। वहीं कुछ ऐसी महिलाएं भी होती हैं जो तर्क देती हैं कि बच्चे भगवान की इच्छा से पैदा होते हैं और महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लिए ही नियत की गयी हैं।

हिंदू समुदायों की तुलना में मुस्लिम परिवारों की जन्म दर अधिक है। समय-समय पर मुस्लिम समुदायों के सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि आधुनिक परिवार नियोजन उपायों के बारे में जागरूक होने के बावजूद भी, धार्मिक कारणों और नियतिवाद दृष्टिकोण के कारण महिला और पुरुष दोनों उत्तरदाता इसके उपयोग के विरुद्ध पाये जाते हैं।
गरीबी की मजबूरी: गरीबी हमारे देश की आबादी में वृद्धि का एक और कारण है। बहुत से गरीब माता-पिता अधिक बच्चों को इसलिए जन्म नहीं देते की उन्हें गर्भ निरोधकों के बारे में ज्ञान नहीं है, बल्कि इसलिए देते है ताकि वे बच्चे  जीविका अर्जन करने में उनकी सहायता कर सके। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि हमारे देश में बाल मजदूरों की संख्या अनगिनत है। यदि गरीब परिवार बच्चे को काम करने से रोक दिया जाता है, तो उनकी पारिवारिक तथा मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में मुश्किले आ सकती है।
मानसिकता की समस्या: आम तौर पर, अनपढ़ और अशिक्षित बच्चे अपने पिता के आचरण का अनुसरण करते हैं और परिवार की आय बढ़ाने के लिए माता-पिता बच्चे को जन्म देने का विकल्प चुनते हैं। चूंकि लड़के को परिवार के लिए पैसा कमाने वाले के रुप में देखा जाता है, इसलिए उनमे लड़के की इच्छा अधिक प्रबल होता है।

लेखक,
प्रीतेश रंजन सिंह  की कलम से

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