द्वारका नगरी के एक क्षेत्र में राजा सत्राजित नामक व्यक्ति रहता था , जो सूर्यदेव का परम भक्त था । इस अटूट भक्ति के कारण दोनों मे मित्रता हो गई , जो शनैः – शनैः घनिष्ठता मे परिणीत हो गई , जिस मित्रता के चलते सूर्यदेव ने प्रसन्न होकर सत्राजित को अनमोल एवं अमूल्य सम्यंन्तक मणि भेंट की ।
मणि की विषेशताऐं :-
मणि की चकाचौंध से प्रेरित हो सत्राजित ने उसको अपने कंठ मे धारण कर लिया , मणि के विषेश गुणों के कारण , सत्राजित सूर्यदेव के समान ही प्रतीत होता था ।
यह मणि प्रत्येक दिन ९ मन सोना उत्पन्न करती थी ।
यह मणि जहाँ पर भी रहती थी , उस स्थान पर कभी कोई महामारी अथवा व्याधि , अकाल , किसी भी तरह की अतिवृष्टि नहीं होती थी ।
धारण करने वाला व्यक्ति वैभवता के चर्मोत्कर्ष तक पहुंच जाता था अतः , सम्यन्तक मणि के उक्त सभी विषिश्ट गुणों के कारण एकदिन राजा सत्राजित , द्वारका महल मे श्री कृष्ण जी से भेंट करने पहुंचा , मणि की ओजस्विता के कारण वह स्वयं भी सूर्य देव के समान दिखता था , इस कारण से द्वारपालों ने समझा कि , सूर्यदेव , द्वारकाधीश से मिलने के लिये आये हैं , सत्राजित को बिना रोकटोक के कृष्ण के महल मे अंदर प्रवेश कर गया …
कृष्ण से तो कुछ भी नहीं छुपा वह समझ गये कि मणि के मद मे चूर सत्राजित अपनी वैभवता का प्रदर्शन करने आया है … श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा , कि तुम यह मणि महाराज अग्रसेन को दे दो , वह इस समय सबसे समझदार और प्रभावशाली राजा हैं , और इस तरह की बहुमूल्य वस्तुऐं राजाओं के पास ही शोभा देती हैं , वह इसका सदुपयोग प्रजा के पालन मे उपयुक्त रुप से करेंगे ..सत्राजित ने इंकार कर दिया और वापस अपने नगर लौट गया … रुपयों पैसों के वैभव के मद मे चूर सत्राजित का भाई प्रसेन एकदिन उस सम्यंतक मणि को अपने गले मे धारण कर जंगल मे शिकार खेलने अकेले ही चला गया , वहां पर एक शेर ने उसे मार डाला , और उसके गले से चमचमाती हुई मणि मुहं मे दबाकर चल दिया … रास्ते में जांमवंत ने शेर का शिकार करके वह मणि ले ली और वहीं जंगल मे अपनी कंदरा मे आकर मणि अपने पुत्र को खेलने के लिये दे दी । इधर सत्राजित ने सारे मे बात फैला दी , कि , कृष्ण ने मेरे भाई प्रसेन को मार डाला और मणि को हथिया लिया, इस कलंक से दुखी श्रीकृष्ण जी ने मणि को ढूंढने का निश्चय कर कुछ सैनिकों को साथ लेकर जंगल मे चल दिये , वहां उन्हें सत्राजित के भाई प्रसेन का शव दिखाई दिया , उसके शरीर पर शेर के पंजो के निशान देखकर वह समझ गये , कि इसको शेर ने मार डाला और मणि लेकर अपनी गुफा मे चला गया …
कृष्ण ने गुफा को ढूंढ निकाला और अकेले ही गुफा मे प्रवेश कर गए , जब ७ दिनों तक कृष्ण बाहर नहीं निकले , तो सभी सैनिक उदास मन से द्वारका महल मे लौटकर , मंत्रियों को स्थिति से अवगत कराया …
इधर कृष्ण ने जब गुफा मे एक बालक को मणि से खेलते देख , मणि को लेना चाहा तो वहां मौजूद जांमवंत को क्रोध आया और उन्होंने कृष्ण से युद्ध करना शुरु कर दिया , परन्तु कईं दिनों तक युद्ध करने के पश्चात वह कृष्ण को पराजित नहीं कर सके , तो , बैठकर सोचने लगे , कि मेरे प्रभु श्रीराम ने कहा था कि मै तुम्हें युगों पश्चात फिर से मिलूंगा , ऐसा ध्यान करने पर जामवंत जी को ज्ञान हुआ और वह कृष्ण के चरणों मे नतमस्तक होकर क्षमा याचना करने लगे , कि प्रभु मै आपको पहचान नहीं सका , कृपा क्षमा करें और मुझे अपना वही श्री राम का धर्नुधारी रुप का दर्शन करायें … फिर जामवंत के शरीर पर स्नेह का हाथ फेरा जिससे उनकी सारी थकान और दर्द ठीक हो गया ।
भगवान ने अपने वास्तविक रुप के दर्शन जामवंत जी को कराये और जामवंत ने अपनी कन्या जामवंती का विवाह श्रीकृष्ण से किया और सम्यंतक मणि कृष्ण को दी , फिर कृष्ण की आज्ञा से स्वर्ग लोक को प्रसथान किया … द्वारका वापस आकर कृष्ण ने सम्यन्तक मणि सत्राजित को दी , तो वह बहुत लज्जित हुआ कि , उसने व्यर्थ ही कृष्ण पर आरोप लगा दिये …
इसके पश्चाताप मे सत्राजित ने अपनी पत्नी से विचार विमर्श करके अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ किया और सम्यन्तक मणि कृष्ण को दी ।
इस तरह कृष्ण जी का विवाह जाम्बवंती और सत्यभामा के साथ हुआ , जो रुकमणी जी के साथ श्रीकृष्ण की ३ प्रमुख रानियाँ थीं ।
कुछ समय पश्चात कृष्ण ने सभी राजाओं की सभा आयोजित की , और सभी के सामने सहमति से वह मणि अक्रूर जी को दे दी ।
शिक्षा :-
🕉️अल्पबुद्धि मनुष्य भौतिक वस्तुओं की उपासना करने लगते हैं, जो शात्रोचित नहीं है ।
🕉️ क्रोध बुद्धि का नाश करता है , जिसके चलते जामवंत अपने प्रभु को नहीं पहचान सके ।
🕉️ किसी भी गलती को केवल प्रायश्चित से ही सुधारा जा सकता है ।
कहते हैं कि , श्री भागवत मे वर्णित इस कथा को जो कोई सुनता है , पढ़ता है एवं स्मरण करता है उसका जीवन सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है और वह सर्वोच्च पूर्णता की स्थिति को प्राप्त करता है।